सांकल सांकल
सांकल-सांकल
सांकल, सांकल हो गया
मन बैरागी हो गया….
तारों से हमने पूछा
नील गगन है क्या तेरा
है गगन तो तेरा अपना
तू टूटता क्यों फिरा
तारा बोला, मैं जीवन
से हारा थका फिरता हूं
साथ-साथ ले अपने
मैं तो बस चमकता हूं
…मन बैरागी हो गया
बड़ा व्योम है, बड़ी बातें
अब मैं तुझको क्या कहूं
कोई भी निर्लिप्त नहीं है
क्या सूरज, चंदा कहूं
..मन बैरागी हो गया
सप्त ऋषि की माला देखो
इनके तप की बात कहां
तन्हा चमके तारा ध्रुव
सार कथा है ख्यात कहां
…मन बैरागी हो गया
अनगिन होना अच्छा होता
उपलब्धि मेरी कही जाती
मेरे नाम दिन रात होते
कभी मेरी भी सुनी जाती ।।
…मन बैरागी हो गया
मोर नाचता, चिड़िया हंसती
तितली पंख उड़ाये फिरती
उपवन उपवन फूल महकते
सर सर नदिया कुछ कहती
…..मन बैरागी हो गया
तुम ही बोलो, कैसे कह
दूं मैं अपने को तारा जी
सावन, बसंत सब उनके हैं
मैं तो ठहरा पराया जी।।
मन बैरागी हो गया…
-सूर्यकांत द्विवेदी