शहर का अंधेरा
मेरे शहर तेरे दिल मे फैला अंधेरा है, उजाला बिखरा है सड़कों पर ।
सड़क किनारे फिर भी कोई बैठा, नंगा-भूखा-अपाहिज अकेला है ।।
चमचमाती तेरी गाड़िया, और बिखरती इतर की खुशबुएँ ।
इस अमीरी का रंग दूसरा है, सफेद कम ये काला गहरा है।।
बेशर्म और बेहयाई का कलेबर, चढ़ा तुझ पर ज्यादा गहरा है ।
धुँआ उगलता है तू, और गरीबों की सांसों पर लगता पहरा है।।
आलीशान दिलकश नजारे है, तेरे महलों के किनारों के ।
लगता है जीवन यही तुझको, मगर इनमें पत्थरों का वसेरा है।।
जिंदगी आवाद होती है, धरती की धूल में सनकर ।
महलों की मीनारों पर, चील-गिद्दों का होता सवेरा है ।।
तेरा वक्त है हँसले रगड़कर इंसानियत को तलबे से ।
इसी हैवानियत की खातिर, तू पसीजता अकेला है ।।
है कोई भगवान या है कोई अल्लाह, मालूम नही मुझको ।
वक्त आने पर इसी वक्त पर मेरा, विस्वास ठहरा है ।।
मेरे शहर तेरे दिल में फैला अंधेरा है…