सहपाठी
मेरे एक सहपाठी हैं
देखने में लाठी हैं
रात में जब सो रहे थे
ख्वाब में वे खो रहे थे
बड़ा सुन्दर दृश्य था
गुरु थे एक शिष्य था
शिष्य बड़ा बेअक्ल था
मेरे मित्र का हमशक्ल था
गुरु जी पढ़ा रहे थे
शिष्य को समझा रहे थे
शिष्य भी मजबूर था
पास था न दूर था
गुरु जी की बात को समझ नहीं पाता था
अगल-बगल झाँक कर समय को बिताता था
अचानक गुरु जी ने कर दिया सवाल
शिष्य के लिए हुआ बहुत बड़ा जंजाल
जवाब देने में करने लगा आनाकानी
गुरु जी बोले ‘अभी याद दिलाऊँगा तेरी नानी’
सुनते ही शिष्य भागने लगा बेहाल
गुरु जी तुरन्त हुए गुस्से में लाल
पीछे-पीछे गुरु जी और आगे-आगे शिष्य था
मित्र मेरे खुश थे कि कितना सुन्दर दृश्य था
शिष्य छिप गया कहीं
गुरु जी पाए नहीं
गुरु जी अचानक मेरे मित्र को जब पाए
समझे यही शिष्य है और उसके पास आए
कान पकड़ कर बहुत जोर से गुरु जी ने ऐंठा
सहन नहीं कर पाया साथी जल्दी से उठ बैठा
नींद खुली तो गुरु जी गायब न ही कोई शिष्य था
सच पूछो तो यारो वहाँ बड़ा ही अद्भुत दृश्य था
ख्वाब में खोने का
घोड़े बेचकर सोने का
इतना सुन्दर अंजाम था
कुत्ते के मुँह में मेरे सहपाठी का कान था।
✍️ शैलेन्द्र ‘असीम’
(दिग्विजयनाथ पी.जी.कॉलेज गोरखपुर के विज्ञान संकाय में 1991 में आयोजित कवि गोष्ठी में मेरे द्वारा सृजित और प्रस्तुत हास्य कविता)