सहचरी तुम!
सहचरी तुम!
करूंगा सारे रंग निछावर
हर रंग में रंग जाना तुम
अपनी आंचल को फैलाकर
इस जग पर छा जाना तुम।
आंचल के विस्तार में
तंत्रों की झंकार में
मुखरित होते रंग में
मैं भी निखरूं संग में।
सृजन, वात्सल्य की जननी तुम
प्रेम, हुंकार की वरणी तुम
मैं आकंचित अधम निरामय
रंगों का प्रतिद्वंद्व मैं!
मैं बह जाऊँ रूप नगर में
समता-पर्व की वरणी तुम
मैं तो समझो छंद – स्वछंद
योगमाया की चारिणी तुम!
विग्रह का संयोग कैसा
अपनो का प्रलोभ कैसा
खोकर तुम्हें क्या पाऊंगा
अहं ब्रह्म का योग कैसा!
तुम श्रद्धा का रूप प्रिये!
प्रकृति – स्वरूपा सहचरी तुम
खोकर तुम्हें क्या पाऊंगा
विग्रह का संयोग कैसा!
@ अनिल कुमार श्रीवास्तव