सहकारी युग हिंदी साप्ताहिक का पाँचवा वर्ष 1963 – 64: एक अध्ययन
“सहकारी युग “हिंदी साप्ताहिक ,रामपुर, उत्तर प्रदेश का पांचवा वर्ष (1963 – 64) : एक अध्ययन
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समीक्षक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
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सहकारी युग के लिए यह सदा ही आत्म संतोष का विषय रहा कि वह “किसी एक व्यक्ति ,एक दल या संस्था से” नहीं बँधा क्योंकि ऐसा करने से उसके मतानुसार पत्रकारिता का महत्व समाप्त हो जाता है। “पत्रकारिता की पवित्र मर्यादाओं को सदा सम्मान” देना सहकारी युग ने अपने धर्म के रूप में अंगीकार किया है । अपनी निष्पक्षता के कारण पत्र को काफी आर्थिक क्षति भी उठानी पड़ी है और अनेक स्थानीय व्यक्तियों का कोप भाजन बनना पड़ा है । स्पष्ट है कि निष्पक्षता का मार्ग कंटकाकीर्ण होता है और पग पग पर खतरे हानियां सहने पड़ते हैं। तथापि यह भी सत्य है कि पत्रकारिता का पथ यदि असत्य ,स्वार्थ और राग-द्वेष से जुड़ गया तो वह और चाहे कुछ भी कहलाए किंतु पत्रकारिता तो नहीं ही कही जा सकती। पत्रकारिता अपने समय की सर्वाधिक ओजस्वी तेजस्वी सूर्य भूमिका की अपेक्षा किसी भी कलमकार से करती है। सौभाग्यवश सहकारी युग की लेखनी से यही युगवाणी गूंजी और प्रमाण है 15 अगस्त 1963 का 32 पृष्ठीय विशेषांक जिसमें भारतीय स्वातंत्र्य रक्षा हेतु सहकारी युग आह्वान करता है कि चीनी आक्रांता को कड़ा सबक सिखाने के लिए “कृष्ण के उस रूप की झांकी बच्चे – बच्चे को दिखा दी जाए जिसमें सारथी कृष्ण गीता का संदेश देते हुए अर्जुन को कर्म स्थल युद्ध भूमि में उतरकर शत्रु संहार की प्रेरणा दे रहे हैं। हमें स्मरण करना होगा वीर बंदा बैरागी के त्यागमय जीवन का और महाराणा प्रताप और दानवीर भामाशाह “के जीवन का। (संपादकीय )
महान शिक्षा शास्त्री और भारतीय धर्म दर्शन और संस्कृति के प्रतीक डॉ राधाकृष्णन को सहकारी युग ने “विश्व के सभ्य और प्रगतिशील राष्ट्रों की दृष्टि में एक महान आत्मा ,विद्वान और अंतरराष्ट्रीय समस्याओं पर गहरी दृष्टि” रखने वाला व्यक्ति बताते हुए उन्हें “आधुनिक शंकराचार्य” नाम से संबोधित किया और कहा कि उन्होंने “विश्व के समस्त शिक्षा केंद्रों के माध्यम से विशाल भारतीय संस्कृति का संदेश मानव मात्र तक पहुंचा दिया है” तथापि राष्ट्रपति के रूप में डॉक्टर राधाकृष्णन की उपादेयता पर प्रश्नचिन्ह लगाते हुए सहकारी युग ने लिखा कि उनके “व्यक्तित्व में जो योग्यता और क्षमता है क्या उसका उपयोग हम भारतीय कर पा रहे हैं ? वह भारत के राष्ट्रपति हैं ठीक है किंतु राज्यनीति और राजनीति का इस महान व्यक्तित्व से सीधे कोई संबंध नहीं है। यह महान व्यक्तित्व वह सब कुछ करता है जिसे हमारे देश के राजनेता कराना चाहते हैं। पत्र का आशय यह है कि डॉक्टर राधाकृष्णन इस परिपक्व आयु में विश्व समाज के सम्मुख भारतीय मनीषा को असरदार ढंग से व्यक्त करें और आंतरिक रूप से” हमारे देश की चतुर्मुखी प्रगति में सक्रिय योगदान ” दे सकें।( संपादकीय 7 सितंबर 1963)
सहकारी युग की दृष्टि में पत्रकारिता का “संबंध त्याग ,संघर्ष और कर्तव्य परायणता से है और इन गुणों से परिपूर्ण व्यक्तियों के लिए ही यह पवित्र क्षेत्र है।”( संपादकीय 29 सितंबर 1963 )
इसी अंक के मुखपृष्ठ पर नेशनल हेराल्ड के संवाददाता और सहकारी युग के संपादक श्री महेंद्र प्रसाद गुप्त द्वारा नेशनल हेराल्ड के संपादक श्री चेलापति राव को पत्रकारिता के क्षेत्र में उच्च आदर्शों के प्रणेता एवं निर्भीक निष्पक्ष और विश्व द्वारा मान्य पत्रकार बताते हुए हेराल्ड की रजत जयंती पर बधाई प्रकाशित की है और श्री नेहरू के मत को उद्धृत करते हुए निम्न स्तर के समाचार पत्रों का विरोध करने का जनता से आह्वान किया है ।
चीन की ओर से उत्पन्न संकट की स्थिति में स्वराज्य की रक्षा के लिए संघर्ष और साहस का आह्वान सहकारी युग में बार – बार किया । 26 अक्टूबर 1963 को फिर इसने संपादकीय में लिखा :- “आज हमारी मातृभूमि के उन्नत ललाट कश्मीर की घाटी पर पाकिस्तान अपने नापाक इरादों से खेल रहा है चीन हमारी शस्य-श्यामला भारत भूमि की ओर रक्तिम निगाहों से देख रहा है और यह दोनों पड़ोसी शत्रु भारत के अहिंसावाद को चुनौती दे रहे हैं जिसका प्रतिकार करने के लिए गौतम और गांधी के देश को राम का देश बनना है ,कृष्ण का देश बनना है और प्रताप शिवाजी बंदा बैरागी का देश बन कर भारत के चप्पे-चप्पे में वह जागृति पैदा करना है जो हमारी पावन संस्कृति की मर्यादाओं को सुरक्षित रख सके।”
अपने इतिहास ,संस्कृति और धर्म से प्रेरणा ग्रहण करते हुए अत्यंत भावपूर्ण शैली में विचाराभिव्यक्ति सहकारी युग की वैयक्तिक विशेषता रही है और यह प्रायः सभी संपादकीयों में स्पष्ट और सहज रूप से पाई जा सकती है ।
14 नवंबर 1963 को सहकारी युग ने “अपने प्रिय प्रधानमंत्री” पंडित जवाहरलाल नेहरू के पिचहत्तरवें जन्मदिवस पर उन्हें आत्म निरीक्षण का धुनी ,मनन कर्ता और विचारक लेखक अंतर्राष्ट्रीयतावादी और कुशल राजनीतिज्ञ बताते हुए मुखपृष्ठ पर उनकी दीर्घायु की कामना मोटे मोटे अक्षरों में की । इसी अंक के अपने संपादकीय में दीपावली उत्सव के परिप्रेक्ष्य में सहकारी युग ने लिखा कि आज “दीपमालिका यही संदेश दे रही है कि सीमाओं पर जो सैनिक अपने प्राणों की आहुति देने के उद्देश्य से प्रतिपल प्रतिक्षण जग रहे हैं और शंकर की क्रीड़ा स्थली को सुरक्षित रखने के लिए जल रहे हैं गल रहे हैं उन्हें इस बात का पूरा पूरा आश्वासन रहे कि उनके जीवन दीपों को ज्योतिर्मय रखने के लिए भारतीय नागरिक जितने भी रक्त की आवश्यकता होगी ,देंगे। दीपमालिका लक्ष्मी की आराधना का पर्व है तो यह आराधना व्यवसाय के लाभ के लिए नहीं अपितु भामाशाह की लक्ष्मी के समान देश रक्षा के लिए हो ।”
अमेरिका के राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी की हत्या को अमेरिका ही नहीं ” मानव जाति की महान क्षति ” बताते हुए उन्हें विश्व की आम जनता के लिए जनतंत्र , स्वतंत्रता एवं प्रगति के जागरूक प्रहरी के रूप में स्मरण किया । (संपादकीय 30 नवंबर 1963)
इसी वर्ष रामपुर में एक के चार गुना लौटा कर देने वाले कतिपय बैंको अथवा फाइनेंस एजेंसियों के खिलाफ सहकारी युग में लंबा अभियान चलाया और जनता, प्रशासन और शासन को इन फर्जी तथा धोखा देने वाली काल पुजारियों के प्रति निरंतर सचेत किया ।
” गोपबंधुनगर में कांग्रेस अध्यक्ष रामराज नादर ” के समाजवादोन्मुख अध्यक्षीय भाषण को सहकारी युग ने “भारत के शोषित समाज में आशा की एक किरण” पैदा करने वाला बताया क्योंकि उसके मतानुसार श्री कामराज के व्यक्तित्व और उनकी घोषणाएं एक बहुत बड़े आश्वासन का आधार हैं।( संपादकीय 12 जनवरी 1964)
40 पृष्ठीय गणतंत्र दिवस विशेषांक के संपादकीय में सहकारी युग ने “कश्मीर में पंचमांगी तत्व” उभरने तथा चीन और पाकिस्तान के संकट की ओर देश का ध्यान आकृष्ट करने के अतिरिक्त वस्तुओं के मूल्य में 20 से 30% की वृद्धि और आय का जहां का तहां बने रहना अत्यंत चिंताजनक विस्फोटक स्थिति की ओर संकेत करने वाला बताया। समाजवाद को अस्वीकार न करते हुए भी पत्र ने लिखा कि भुवनेश्वर में कांग्रेस ने एक निर्भीक नेतृत्व में अति शीघ्र समाजवाद के लक्ष्य को प्राप्त करने का संकल्प किया है । यह शुभ संकल्प है। परंतु एतदर्थ देश में जिस भावनात्मक एकता की आवश्यकता है उसकी ओर हमारा ध्यान आकृष्ट होना चाहिए । पत्र आह्वान करता है कि भारतीय समाजवाद (कम्युनिज्म नहीं) की स्थापना के लिए एकत्त्व और समत्व की भूमि पर प्रतिष्ठित होकर भारतीय जनता क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर उठकर देश के नवनिर्माण में योग्य और वेद के इस स्वर को दोहराए कि माता में भूमिः पुत्री ८ हँ प्रथिव्यः
राजनीतिक पार्टियों के सामने “नगर पालिका की स्थिति में सुधार या जनसेवा की भावना सामने रखकर चुनाव कार्यक्रम बनाने का कोई इरादा” होने के अभाव को बताते हुए सहकारी युग ने जनता को अन्य अनेक देशों का स्मरण कराया जहां स्थानीय संस्थाओं के चुनावों को राजनीति से पृथक रखा जाता है और व्यक्ति विशेष के गुणों के आधार पर मतदाता अपने प्रतिनिधि चुनते हैं । सहकारी युग की राय में आवश्यकता तो यह है कि राजनीतिक पार्टियां चाहे वह कांग्रेस हो या अन्य विरोधी दल ,इन चुनावों से अपना हाथ खींच लें।( संपादकीय 12 मार्च 1964 )
सुप्रसिद्ध गांधीवादी श्री श्रीमन्नारायण के ज्ञान मंदिर आगमन की रिपोर्ट मुखपृष्ठ पर प्रकाशित करते हुए सहकारी योग्य विद्वान तपस्वी के इन शब्दों को लाल रंग से अभिव्यक्ति दी :-
“श्री अग्रवाल ने कहा कि आजकल जिला स्तर पर बाढ़ की तरह पैदा हो गए अखबारों द्वारा भी भ्रष्टाचार को प्रश्रय मिलता है । उन अधिकारियों के बारे में जिन से विज्ञापन नहीं मिलते ,यह अखबार वाले उन्हें बदनाम करने के लिए व्याकुल रहते हैं। इस प्रकार के अखबारों से काफी क्षति हो रही है।”( 28 मार्च 1964 )
श्रीमन्नारायण के उपरोक्त कथन पर अलग से संपादकीय टिप्पणी करते हुए सहकारी युग इसी अंक के प्रष्ठ दो पर प्रश्न करता है कि यह बात विशेष रूप से विचारणीय है कि “जिला स्तर पर ब्लैक मेलिंग करने वाले पत्रों और पत्रकारों को किसने पाला है ? किसने संरक्षण दिया है ? वस्तुतः जिला स्तरीय राजनीतिक नेताओं ने जिनका उद्देश्य येन केन प्रकारेण शक्ति प्राप्त करना है इस रास्ते पर चलना आरंभ किया और पत्र तथा पत्रकारिता को अपना यंत्र बनाया । आजादी के बाद राजनीतिक पार्टियों ने समाचार पत्रों को अपने व्यक्तिगत प्रचार का साधन ,भ्रष्टाचार का साधन बनाने में कोई कसर उठा न रखी । इस राजनीतिक वर्ग ने साथ ही साथ प्रशासन को व्यक्तिगत और शूद्र दलगत स्वार्थों की पूर्ति के लिए भी प्रयोग करने में बड़ी हद तक सफलता प्राप्त कर ली और पत्रों की जिंदगी राजनीतिक भ्रष्टाचार पर आधारित हो रही। देखिए कब मुक्ति मिले इस अभिशाप भरी पद्धति से ।”
धर्म के नाम पर नफरत फैलाने की कोशिश की सहकारी युग ने सदा भर्तस्ना की। हिंदू महासभा की सांप्रदायिक रीति- नीतियों की पत्र ने कटु आलोचना की और कहा कि हिंदू महासभा के नेता अपनी ऊल-जलूल बातों से सांप्रदायिकता को हवा देने की कोशिश कर रहे हैं । पत्र के मतानुसार तो धर्म के नाम पर दूसरे धर्म के खिलाफ हैवानियत से भरे कदम आज के युग में इंसान के नाम पर कलंक का टीका है । हिंदू धर्म को सही अर्थों में समझने का आग्रह करते हुए पत्र लिखता है कि आवश्यकता स्वामी विवेकानंद प्रभृति महापुरुषों का पथ अपनाने की है जिन्होंने घृणा के स्थान पर प्रेम का सहारा लिया और ज्ञान की ज्योति अगणित हृदयों में प्रज्वलित की ।(संपादकीय 28 मार्च 1964 )
अक्सर सहकारी युग के संपादकीय उर्दू भाषा के प्रयोग से इतना प्रभावित हो जाते रहे हैं कि उन्हें आसानी से किसी उर्दू अखबार की संपादकीय टिप्पणी समझने का भ्रम हो सकता है । दरअसल रामपुर उर्दू का गढ़ है । यहां की हवाओं में उर्दू के शब्द तैरते हैं । वह हमारे लोक व्यवहार का एक हिस्सा सहज ही बन जाते हैं । ऐसा ही एक प्रमुख उदाहरण देखिए:-
“हमने बार-बार लिखा है कि म्युनिसिपल बोर्ड के इलेक्शन को सियासत की गंदगी से दूर रख कर शहरी जिंदगी की जरूरयातों की बिना पर लड़ा जाना चाहिए । यही तरीका है दुनिया के उन मुल्कों का जिन्होंने तालीम और तहजीब के मयार को बुलंद किया है। लेकिन जहां तक हमारे इस शहर का सवाल है यहां की तहजीब और तालीम को सियासत के हाथों गिरवी रख दिया गया है।”( संपादकीय 17 अप्रैल 1964)
संपादकीय टिप्पणियों में भाषा संबंधी एक विशेषता यह है कि स्थानीय राजनीति से जुड़े प्रश्नों पर इस पत्र के संपादक की जो लेखनी चली है वह अनेक बार उर्दू-प्रधान हो गई है ,दूसरी ओर राष्ट्रीय शैक्षिक साहित्यिक और आध्यात्मिक विषयों पर वह अत्यंत भावुक शैली में शुद्ध परिमार्जित हिंदी का ही आकार प्रायः पसंद करती रही है ।
“पंडित नेहरू अमर हो गये”- शीर्षक से शोकाकुल संपादकीय ने प्रधानमंत्री श्री जवाहरलाल नेहरू के आकस्मिक देहांत पर लिखा :- “यद्यपि उनका पार्थिव शरीर शीतल चंदन से निर्मित चिता की निर्मम अग्नि शिखाओं को समर्पित किया जा चुका है किंतु भारतीय जनता का हृदय सम्राट जीवित नहीं है ,इसे स्वीकार करने की शक्ति कठोर से कठोर हृदय में भी नहीं है । उनके विरोधी और बड़े से बड़े आलोचकों के हृदय भी इस दुखद समाचार को सुनकर बैठ गए। श्री नेहरू ने एक नए युग को जन्म दिया और न केवल जन्म दिया अपितु उस नवयुग की मान्यताओं को स्वस्थ रखने के लिए हर प्रकार का संघर्ष भी किया । आज जबकि नेहरू जी हमारे मध्य नहीं हैं ,सबसे बड़ा दायित्व कांग्रेसजनों के समक्ष यह है कि वह भारत की राजनीतिक एकता कायम रखने के लिए नेहरू जी के सेक्युलरिज्म की आत्मा में देश के किसी भी भाग में चोट न आने दें । विशेष रूप से ऐसे समय में जबकि देश के बाहर और भीतर कई भारत विरोधी शक्तियां काम कर रही हैं ।”(संपादकीय 30 मई 1964 )
श्री लाल बहादुर शास्त्री के चयन को सहकारी युग ने प्रधानमंत्री के आसन पर “घोर अध्यवसायी ,महान नैतिकतावादी ,शुद्ध अंतःकरण के व्यक्ति” का चयन बताया और पाठकों को स्मरण कराया कि स्वर्गीय पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भुवनेश्वर कांग्रेस में अस्वस्थ होने के बाद श्री शास्त्री को बिना विभाग के मंत्रिमंडल में सम्मिलित किया तो शास्त्री जी बोले “मुझे करना क्या है ?”दूरदर्शी ने नेता ने जवाब दिया “तुम्हें मेरा काम करना है” और हर्ष का विषय है कि भारत की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी कांग्रेस ने पंडित नेहरू की आकांक्षाओं को कार्य रूप में परिणित कर दिया ।(मुखपृष्ठ 6 जून 1964 )
पंडित जवाहरलाल नेहरू को मुक्त कंठ से श्रद्धांजलि देने तथा लाल बहादुर शास्त्री के चयन पर सकारात्मक टिप्पणी पत्र के गंभीर और प्रौढ़ चरित्र को उजागर करती है । इसका अभिप्राय स्पष्ट है कि पत्र व्यापक पटल पर राष्ट्रीय राजनीति के उतार-चढ़ाव की समीक्षा में विश्वास करता है तथा भारतीय जनमानस को सही दिशा बोध प्रदान करने में उसकी रूचि है।
जिला स्तरीय क्षुद्र राजनीति पर प्रहार करते हुए सहकारी युग का मत सदा रहा कि जिले के राजनीतिक समाज का अस्तित्व उनकी सेवा के द्वारा कायम रहने के बजाय आज उनकी उन तिकड़मों पर आधारित रहता है जिसमें वह प्रशासन को शामिल करने में गर्व समझते हैं या दूसरे शब्दों में न्याय का गला घुटने में शान और सफलता मानते हैं ।”(संपादकीय 28 जून 1964 )
सहकारी युग ने भारत में बढ़ने और पोषण पाने वाले भ्रष्टाचार के मुख्य सूत्रधार सत्ताधारी व्यक्ति माने हैं।( संपादकीय 11 जुलाई 1964 )
अक्सर सही कामों को गलत ढंग से किया जाना स्वयं में एक अव्यवस्था को जन्म देता है । नतीजा यह होता है कि कोई कुव्यवस्था खत्म कराते – कराते एक नई कुव्यवस्था पैदा हो जाती है । उत्तर प्रदेश में खाद्यान्न संकट और इस संबंध में प्रशासन- शासन की नीति के विरोध में रामपुर में वामपंथी विरोधी दलों द्वारा किए गए हड़ताल- जुलूस में उत्पन्न गुंडागर्दी के खिलाफ सहकारी युग ने साहस पूर्वक आवाज उठाई और इस को शर्मनाक बताते हुए कहा कि इन्हें “बर्दाश्त करने का मतलब व्यवस्था के साथ खिलवाड़ है। पत्र के मतानुसार प्रदर्शन और हड़ताल निस्संदेह आज के युग में जनता के हथियार और अधिकार हैं लेकिन यदि उनके प्रयोग की भूमिका में केवल तुच्छ राजनीतिक स्वार्थों का हाथ है तो यह स्थिति बड़ी भयावह है।”
( संपादकीय 2 अगस्त 1964 )
इस वर्ष के साहित्यिक-वैचारिक प्रमुख रचनाकार हैं :-प्रोफेसर शिवा दत्त द्विवेदी, रामावतार कश्यप पंकज, ब्रह्मदत्त द्विवेदी मंजुल ,आर .आर .दिवाकर (पूर्व केंद्रीय मंत्री), किशोरीलाल प्रेम, नरहरि डालमिया ,मोहन कुकरेती ,रमेश शेखर, महेश राही ,मुन्नू लाल शर्मा ,सुरेश अनोखा, हृदय नारायण अग्रवाल ,अनंत प्रसाद विद्यार्थी ,अंशुमाली गंगा सिंह चूड़ामणि (आई.ए.एस.) हरि नारायण सक्सेना ,भारत भूषण (मेरठ), श्री करुण, मुकुट बिहारी वर्मा, नलिन विलोचन ,आनंद मिश्र (बिलासपुर ब्लॉक), श्री गिरिवर ,महावीर सिंह त्यागी ,श्री मनमोहन ,ओम प्रकाश गुप्त “निराश”, केवल गोस्वामी ,राजेंद्र कुमार पाठक ,देवर्षि सनाढ्य (गोरखपुर विश्वविद्यालय ),भगवान स्वरूप सक्सेना , प्रोफ़ेसर हरिप्रसाद पांडे ,ई. एच. रैगनर, रूप किशोर मिश्र साहित्य रत्न, कुमारी सुभाषा अग्रवाल ,प्रोफेसर देवकीनंदन पांडे, प्रोफेसर एडविन बे , प्रेम किशोर श्रीवास्तव ,कल्याण कुमार जैन “शशि”, चंद्रशेखर गर्गे, जाफर अली ,कुमारी सरला कांबोज ,वीरेंद्र शलभ, श्री शैलेंद्र ,रवि शौरी ,आर.सी. प्रसाद सिंह, राम मणि त्रिपाठी ,डॉ अवध बिहारी कपूर, श्यामसुंदर टाँटिया, घनश्याम भूषण गुप्त “श्याम”।
अनेक कहानियाँ ,कविताएं ,नाटक ,लेख आदि इस वर्ष भी सहकारी युग को वर्ष पर्यंत समृद्ध करते रहे। इसी वर्ष महेश राही का लघु सामाजिक उपन्यास “डोलती नैया” धारावाहिक रूप से छपना शुरू हुआ और कई अंक तक चलता रहा। अनेक कविताओं कहानियों के द्वारा श्री राही ने पत्र को वर्ष भर समृद्ध किया । इसी वर्ष अंशुमाली की एक लघुकथा छपी ,जिसकी विश्वास कीजिए साढ़े तीन पेज की लंबाई थी । रामावतार कश्यप पंकज ,मुन्नू लाल शर्मा ,सुरेश अनोखा और रूप किशोर मिश्र की अनेक कविताएं सारा साल सहकारी युग के कलेवर को जगमगाती रहीं। साहित्यिकता को बराबर सहकारी युग ने अपनाया और राजनीतिक टीका – टिप्पणियों में भी वही साहित्यिक सुरभि और भाषाई सौंदर्यात्मकता का परिचय सर्वत्र मिलता रहा। जिन्हें एक सुलझी दृष्टि वाले उत्कृष्ट पत्र की कामना थी और जो विविध घटनाक्रम का पैना विश्लेषण चाहते थे ,उन्होंने सहज ही सहकारी युग को ह्रदय से लगा लिया।
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