ससुराल मे पीड़ित एक बिटिया का पैगाम -पापा के नाम
ससुराल मे पीड़ित एक बिटिया का पैगाम -पापा के नाम
पापा, बताना नहीं चाहती थी
जब तुम्हे पता चलेगा
हरदिन मर-मर कर जीओगे
जैसे मैं जी रही थी
सात-फेरों के चक्कर में
पड़ गई असह्य पीड़ा के फेरे में
क्यों कि मैं पराई
अब तुम्हारी दहलीज़ से पार
क्या बताऊं
पति-गृह में हाल
याद आये कुछ कुछ वह गीत—-
“जा तुम्हे सुखी संसार मिले
मैके कि याद न आये
ससुराल मे इतना प्यार मिले”
साथ ही साथ तुम्हारी विवशता
और मेरे दर्भाग्य की व्यथा
सोचुं तो क्या यह सच है
जब तुम्हारे साथ थी
सपने संजोकर
अपने “पराये” घर में
तब-सही में “अपने” घर का
सपना पनप ने लगा था
मन ही मन में
जो तुम सब ने बोये थे
मेरी उम्मीद फ़ैल गई
मैं अपनो से पराई
डोली चढ़ साजन घर
मिलन और विरह के मझधार
बाबुल का हाथ छुड़ाकर
अनजाना हाथ पकड़
पहुँच गई उल्लासित विवश
पति-द्वार
यह विस्वास जमाये
नई पहचान के साथ
पोषित हृदय मे
मेरे गहरे जज्वात
परवान चढ़ेगें
छुयेगें अन्जाम
प्यार,स्नेह और ममता
देगा नया परिवार
बताओ तो क्या
सामाजिक परम्परा
मुझ से सिर्फ़ घर बदलाती
अधूरा जीवन हरवार
तब पराई थी
साजन की अमानत
अब भी पराई हूँ
मैके के कैसे खुलवाये द्वार
तुम कहते थे
“बिटिया राज करेगी”
राज़ की बात बताऊं
मेरा राज चलता चौके-चूल्हे पर
मेहनताना -थप्पड़ और लात
गालियों की सौगात
कितने बार सो जाती भूखी
मिल जाती थी रूखी-सुकी
बहू कभी बेटी नहीं होती
बेटियां बहू बने
समाजिक नियम तले
नहीं मालुम जिन्हें ससुराल में
मा-बाप मिले
वह भाग्य कैसे होते
मुझे माँ-बाप मिलकर
बिछुड़े, फिर यह संताप
निरुपाय अंतर्मन का हाहाकार
पापा, तुम मत रोना
पढ़कर मेरा दुःख का तराना
मैं तुम्हारे हिस्से का भी रो लुगीं
मुझे मालूम
तुम कुछ नहीं कर सकते
सिवाय अफसोष
नैतिकता का अवशेष
बेटी तो होती धन पराया
आज मन ने चाहा
तुमे एक आख़री इच्छा बताऊं
फिर अगर जन्म हुवा
जनमु पति -घर -बेटा बनकर
और उन्हें समझाऊं
बहू को कैसे बेटी बनाते हैं
और उनका बेटा
बहू बन आये तुम्हारे घर
सजन