‘सवालात’ ग़ज़ल
सब्ज़-बाग़ों को यूँ, सहरा मेँ, दिखाया क्यूँ था,
एक पल को भी उसने, मुझको, सराहा क्यूँ था। (1)
ग़मे-अहद-ए-अश्क़े-बार, ही रखना था अगर,
लबों पे अपने, तबस्सुम को वो, लाया क्यूँ था। (2)
हिचकियों से भी, दिलासा नहीं, होती मेरी,
याद करना ही था, तो मुझको, भुलाया क्यूँ था। (3)
गर मुहब्बत ही नहीं, मुझसे थी हरगिज़ उसको,
आ के ख़्वाबों मेँ, बारहा यूँ, सताया क्यूँ था। (4)
जिसने इक बार भी, मुड़कर नहीं देखा मुझको,
इक वही शख़्स बस, नज़रों मेँ, समाया क्यूँ था। (5)
आँधियों का था, अगर ख़ौफ़, इस क़दर हावी,
चराग़, चाहतों का, दिल मेँ, जलाया क्यूँ था। (6)
अदू भी पूछते, हमदर्द बन के, हैं मुझ से,
हमने उस शख़्स से ही रब्त, निभाया क्यूँ था। (7)
अपनी नज़रों से, गिराना ही था अगर “आशा”,
ज़मीं से मुझको, यूँ फ़लक पे, बिठाया क्यूँ था..! (8)