सर पे कैसी मुसीबत बड़ी आ गई
ग़ज़ल
सर पे कैसी मुसीबत बड़ी आ गई।
देखिये फैसले की घड़ी आ गई।
साँस लेना मुनासिब भी लगता नही
ये हवा किस कदर नकचढ़ी आ गई।
दिल के साँपो को हम मार पाते नहीं,
साँप आया जो घर इक छड़ी आ गई।
ईंट पत्थर लगाकर मकां जब बना
लो हिफाजत को उसके कड़ी आ गई।
अब चमन में कहीं फूल खिलते नहीं,
पतझरों की अजब सी लड़ी आ गई।
रौशनी के लिए ‘मन’ मचलने लगा,
उसको बहलाने को फुलझड़ी आ गई।
मंजूषा मन