सर झुका कर हम वफा का वहम रखते है
छलने आते है हमे वो मुहब्बत के नकाब में
बड़े शऊर से हम कायम वहम रखते है
नज़र में हम ज़िगर में सूरत है गैर की
सर झुका के हम वफ़ा का वहम रखते है
जो बस्ती वफादारो से थी आबाद कभी
मिलेगा पीठ में खंजर वहां अब जो कदम रखते है
प्रज्ञा गोयल ©®