सर किसी का और…..
सर किसी का और है पगड़ी किसी की,
आम आदत हो गई यह आदमी की.
कौन है, इसको गज़ल मे जो कहेगा,
क्यूँ सियासत को जमीं दी जिंदगी की.
दर्द मेरी आँख से,अब है निकलते,
घेरने लगती है यादें, फिर किसी की.
याद मे मुझको यहाँ पर, कौन रक्खे,
है कदर किसको यहाँ पर, दिललगी की.
फर्ज़ कर मुझसे अगर, जो तू न मिलता,
कौन फिर करता कदर, तेरी हंसी की,
मौत तूने दे दी मुझको, जीते जी ही,
क्या सजा इतनी ही थी बस, दिललगी की.
©®निशान्त माधव