सरहद
विहग पवन स्वच्छंद है, और नदी की धार ।
खींच लिये खुद ही मनुज,सरहद की दीवार।।
दो देशों के बीच में,खींची एक लकीर।
जिसका सरहद नाम है,मानवता का पीर।।
सरहद पर दिन रात यूँ , क्यों होता है खून।
छुप जाती इंसानियत, बाँकी रहें जुनून।।
पागल प्रेमी प्रेम वश,करें हदों को पार।
उसे रोक सकती नहीं,सरहद की दीवार।।
विरह व्यथा में तप रही, कर सोलह श्रृंगार।
सजल नयन में नीर है,प्रीतम सरहद पार।।
सरहद की हद में रहो,लगा हुआ है रोक।
जो इस हद को लाँघता, पाता भारी शोक।।
स्याही काली रात में,कर दी सरहद पार।
अजब-गजब-सा ख्वाब था, आँखें लिया उतार।।
धरती माँ को बाँटती,सरहद की दीवार।
बारूदों के ढ़ेर में,छुपा हुआ अंगार।।
लम्बी ऊँची है बँधी,कटक कटीली तार।
दो देशों के बीच में,सरहद की दीवार।।
-लक्ष्मी सिंह