सरहदों पर चाँदनी
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बुझती निगाहें देखती हैं सरहदों पर चाँदनी,
सरहदी उन्माद है शीर्ष पर चढ़ा हुआ,
जीव एक मृत सा
बैठा,बर्फ में सना हुआ,
निशि की एकाकी शांतियों में सोचता है;
बरबस…
मनोहर भावों को पुचकारता है, नोचता है।
वस्तु बनकर जी रहा है,
विकल, मन सरहदों की वादियों में भी रहा है।
कैसी निस्तब्धता, नीरवता में मशगूल है,
पत्ते खनकने पर भी चौकन्ना वह शूर है;
एकाकियों में दीर्घ साँसें ले रही है चाँदनी,
स्वच्छंद हो विचरती, नग्न पावन चाँदनी।
शूलियों पर आत्ममंथन कर रहा है,
जीवन किसलिए?
काट मारो, या कट मरो?
सन्नाटों में मन भावों को
बिलोड़ रहा है,
संवाद भी, पूरे न हो सके अभी
बात को चाँद ने सुनी, हाँ, नाँ न की;
शिलाओं में एक गोली कौंधती है…
वीर की उसाँस भी दो फूलती है।
सोचवश रमणीय था जो जीव आख़िर,
क्षणमात्र में गुजरा हुआ था वह मुसाफिर;
चीख पड़ती है जहाँ के शीश पर चढ़,
क्रंदनों की वृष्टि करती चाँदनी फिर।
प्रिय को संदेशे भेजने को था बुलाया,
सोचता, बस सोच कर के कह न पाया;
सुन ना सकी मैं, शांति के विचलित स्वरों को…
शीश धुन-धुन चीखकर दहाड़ मारे,
चाँदनी है चाँद की जो लौटती है…
चाँदनी है चाँद की जो लौटती है;
वीर की अदीप्त सी आँखें अभी,
बुझती निगाहें देखती हैं..
चाँदनी को सरहदों पर…
बुझती निगाहें देखती हैं सरहदों पर चाँदनी।
…“निश्छल”