सरहदों ने परिंदों को गर
तूने मुझे आज आँखों से पिलाया ना होता
मैंने भी कसम से सब को बताया ना होता
डूब रहा हूँ मैं साहिल पर आज देख लेना
काश तूने इश्क करना सिखाया ना होता
रूह प्यासी जन्मों की प्यास सोख लेता मैं
बारिश ने मेरा जिस्म गर जलाया ना होता
आँधियों से भी नजर मिलाकर बात करता
गर तूने तूफाँ बेवाफ़ाई का मचाया ना होता
ये ना समझों की राह भूल गया नादाँ परिंदा
सरहदों ने गर रोँ रोँ परिंदों को बुलाया ना होता
खुदा से मिलने की ख्वाईश में ख़ाक बन जाते
रूहानी मिट्टी को अगर खाक कह उड़ाया ना होता
जिंदगी को सब मुरादें हथेली की लकीरों से होती
अशोक गर दिल कभी किसी से लगाया ना होता
अशोक सपड़ा की कलम से दिल्ली से
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