सरलता
नहीं जानती भाग्य का लेखा ,
मानवता की कसौटी ।
कर्तव्य पूर्णता मानव कार्य ,
नयेपन का अहसास लिए ।
खड़ी मानवता ताज लिए।
कहाँ खो जी पाती ।
मानवीय संवेदना ,
दुर्व्यवहारों का अहसास लिए ।
छीनता निज ,सहज सरलता,
खो जाती है, सच्चाई ,
निज में ढूंढ लाती है,
विजय पल अंतिम लेखा ।
मानवता विश्वास यही ,
अगर पल भर जी ले ।
मानव की कसौटी पर ,
अनायास पागलपन दिख जाता ।
तमाम खोखला परत विन्यास ,
र्निबोध मन के आंगन में ,
मन का सहुलियत,
दिखता कितना सुन्दर।
होते अगर ऊपर से ही खोखले,
अंदर तो होती सच्चाई,
ना होती इतना मारा-मारी ।
सच क्यों बोला जाए ,
यहाँ इसे कौन स्वीकारता ॥
स्वीकारता जो वह ,
गाँधी ,जीसस ही बन जाता । _ डॉ. सीमा कुमारी ,बिहार
( भागलपुर ) | ये मेरी 1-1-09
स्वरचित रचना है जिसे आज प्रकाशित कर रही हूँ ।