सहकारी युग का 11 वाँ वर्ष 1969 – 70 : एक अध्ययन
सहकारी युग हिंदी साप्ताहिक रामपुर(उ.प्र.) का 11 वाँ वर्ष 【1969 – 70 】
■■■■■■■■■■■■■■■■■
समीक्षक : रवि प्रकाश ,बाजार सर्राफा
रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451
■■■■■■■■■■■■■■■■■
स्वतंत्र पत्रकारिता का एक दशक पूर्ण करते हुए सहकारी युग ने आत्मसंतोष का अनुभव किया । उसे संतुष्टि थी कि उसने तमाम तरह के और हर तरफ के स्वार्थपूर्ण गुस्से, झुँझलाहट और धमकियों के प्रहार सहकर भी अपनी तेजस्विता को अक्षुण्ण रखा । पत्र प्रण करता है कि वह पत्रकारिता के क्षेत्र में धन और बल का प्रभाव स्वीकार नहीं करेगा और इस पत्र में केवल वही वाक्य और शब्द प्रयोग किए जाएंगे जो जिले के विकास और देश की प्रगति के लिए आवश्यक हैं। हमारे देश का गौरव कलम के लिए प्रेरणा का केंद्र रहेगा और हमारे देश की जनता हमारी संरक्षक रहेगी। सदा सर्वदा की भांति यह पत्र हर राजनीतिक दल से असंबद्ध रहकर समाज में राजनीतिक चेतना उत्पन्न करने का प्रयास करता रहेगा।”( संपादकीय 15 अगस्त 1969 )
20 पृष्ठीय उपरोक्त विशेषांक के मुखपृष्ठ पर ही सहकारी युग ने लिखा है कि हमारे नेताओं की स्वार्थपरता बढ़ती जा रही है । वे चाहते हैं कि उनकी समृद्धि के लिए उनका दल और उनके दल के लिए सारा देश समर्पित हो । सभी राजनीतिक दल आज स्वयं को जिन आदर्शों और सिद्धांतों से संबद्ध बताते हैं वह उनसे बहुत दूर हैं।”
अध्यापक दिवस पर सहकारी युग ने लंबा लेख लिखा कि “आज जब हम अध्यापक का चित्र अपने मस्तिष्क में बनाते हैं तो हमें वशिष्ठ ,विश्वामित्र ,आचार्य चाणक्य ,समर्थ गुरु रामदास जैसी विभूतियों का स्मरण हो आता है और गुरु वर्ग की इस श्रंखला में जुड़े वर्तमान अध्यापकों के प्रति हम अपना मस्तक नत करते ही हैं।( संपादकीय 6 सितंबर 1969 )
उपरोक्त अंक में ही प्रसिद्ध साहित्यकार प्रोफेसर श्री ईश्वर शरण सिंहल के अभिनंदन तथा स्थानीय सुंदर लाल इंटर कॉलेज में अध्यापक दिवस मनाए जाने का समाचार है ,जिस में दर्ज है कि कालेज के प्रबंधक श्री राम प्रकाश सर्राफ ने अध्यापक वर्ग की विभिन्न कठिनाइयों का वर्णन किया और बताया कि प्रबंधक वर्ग अध्यापकों से जिस राशि की रसीद लेते हैं उतना देते नहीं और इस प्रकार उनका आर्थिक शोषण करते हैं । श्री राम प्रकाश ने शासन से अनुरोध किया कि छात्र-शुल्क के बाद अध्यापकों के वेतन में होने वाली धनराशि राज्य के कोषागार से दी जाए तो उक्त कठिनाई का निवारण संभव है ।”
कांग्रेस अध्यक्ष श्री निजलिंगप्पा तथा बरेली क्षेत्र के डीआईजी श्री के. पी. अग्रवाल से महेंद्र गुप्त की हुई दो प्रथक भेंट वार्ताएं 20 सितंबर 1969 के अंक में सहकारी युग ने प्रकाशित कीं। स्वतंत्रता संग्राम के प्रथम पंक्ति के सेनानी क्रांतिवीर मन्मथ नाथ गुप्त ,निगम ,दत्त आदि से सहकारी युग के संपादक महेंद्र गुप्त के निवास पर उनसे भेंट वार्ता का समाचार 11 अक्टूबर 1969 अंक में प्रकाशित करके पत्र पवित्र हो गया ।उक्त क्रांतिकारियों का मत था कि वह भगत सिंह के सपनों को साकार करने की दिशा में दृढ़ प्रतिज्ञ हैं तथा वर्तमान स्थिति अवश्य बदलेगी क्योंकि “संपूर्ण देश में व्याप्त अशांति और असंतोष में क्रांति के अंकुर” विद्यमान हैं।
इस भेंटवार्ता का यह परिवेश गत समाचार – अंश अत्यंत आकर्षण उत्पन्न करता है :- “सहकारी युग के संपादक की ओर से क्रांतिकारियों का स्वागत किया गया मिट्टी के सकोरों में भरी चाय और भाड़ के भुने चनों से । चारों ओर से बंद कमरे में निर्धन जनता के इस आहार से यह कहकर उनका स्वागत हुआ कि क्रांति के दिनों में अधिकांश ऐसा ही भोजन मिलता होगा तो वह गदगद हो उठे और संपादक के उक्त दुस्साहस की सराहना की ।
इंदिरा गांधी और सिंडीकेट के मध्य चल रहे मतभेदों के संबंध में पत्र ने 6 नवंबर 1969 को अपना संपादकीय लिखा:-” कांग्रेस में सत्ता के लिए संघर्ष चरम सीमा पर” उसने लिखा कि आज एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं दिखाई देता जो संघर्ष से हटकर निर्लिप्त भाव से काग्रेस को बचाने के लिए प्रयत्न करे । दरअसल इन लड़ने वाले कांग्रेसियों का लक्ष्य सत्ता और केवल सत्ता ही रह गया है । राष्ट्रीय स्तर पर सिंडीकेट और इंदिरा ग्रुप के कांग्रेसियों की लड़ाई पत्र की दृष्टि में सिद्धांतों और आदर्शों की न होकर घोर व्यक्तिगत है और सत्ता प्राप्ति उसका उद्देश्य है ।”(संपादकीय 7 दिसंबर 1969)
रामपुर की स्थानीय राजनीति को पूर्णतः अनावृत करते हुए उसके विषय में पत्र आगे लिखता है कि “रामपुर के वर्तमान राजनीतिक दल जिन कार्यक्रमों को लेकर चल रहे हैं उनमें से अधिकांश में नपुंसकता की दुर्गंध आती है और यह आभास होता है कि इनके मस्तिष्क में स्वार्थ सबसे ऊपर है।”
पत्रकारिता के निरंतर गिरते जा रहे स्तर पर सहकारी युग की चिंता बार-बार प्रकट हुई है। जिस पत्र ने अपने जीवन का मिशन मानकर शब्द की तपस्या को अपना सर्वस्व माना हो, उसका व्यथित होना स्वाभाविक ही है :-“हमारे संविधान की महानता और उदारता के कारण एक अनपढ़ व्यक्ति भी कलेक्टर की अदालत में डिक्लेरेशन फाइल करने के बाद अखबार का संपादक बन सकता है । इस उदारता के कारण हर जिले में पत्रकारिता के नाम पर ब्लैकमेल करने वालों की एक जबरदस्त बाढ़ आई और आजादी से पूर्व जो सम्मान पत्रकारों को प्राप्त था,वह क्रमशः कम होता गया ।”(संपादकीय 14 दिसंबर 1969)
सहकारी युग की दृष्टि में पत्रकार जनता और सरकार के मध्य संबंध स्थापना का माध्यम है । जनता की आवश्यकताओं तथा कठिनाइयों को पत्र द्वारा प्रशासन तक पहुंचाना तथा प्रशासकीय कार्यों से जनता को अवगत कराना यह है एक जनतंत्रात्मक दृष्टिकोण ।”(संपादकीय 20 दिसंबर 1969)
सहकारी युग ने रामपुर की जनता को स्मरण कराया कि वह अपनी उपेक्षा को सहन नहीं करे और जबरदस्त विरोध का मार्ग अपनाए। रामपुर की गरीब जनता आजादी के बाद और गरीब हुई है । ऐसी हालत में पत्र के अनुसार जनता में राजनीतिक सूझबूझ उत्पन्न करने के लिए राजनीतिक लोग एकत्र होकर जन प्रशिक्षण का दायित्व अपने कंधों पर लें।”( संपादकीय 3 जनवरी 1970)
सहकारी युग ने बार-बार इस सवाल को उठाया है कि केंद्र और राज्य में पत्रकारों और पत्रों से संबंध सरकारी तंत्र आज इस बात पर कदाचित कोई बल नहीं देता कि भाषा और साहित्य के स्तर का पतन न हो और जनतंत्र के लिए आवश्यक वातावरण उत्पन्न हो । उसने कहा कि यद्यपि यह सत्य है कि जिला स्तर के समाचार पत्रों को जीवित रखकर जनतंत्रात्मक गतिविधियों को प्रोत्साहन मिल सकता है तथापि यह भी सत्य है कि आज स्थानीय पत्रों में जिस भाषा का प्रयोग होता है उससे भाषा कलंकित होती है, साहित्य का मस्तक झुकता है और साहित्यकार की आत्मा को अत्यधिक क्लेश होता है ।” पत्र जोरदार माँग करता है कि प्रोत्साहन केवल उन पत्रों को मिलना चाहिए जो उनके योग्य सिद्ध हों अन्यथा पत्रकारिता के नाम पर आज जो कुछ अनर्थ हो रहा है उसमें वृद्धि होगी ,हमारे जनतंत्र का लक्ष्य पीछे हटेगा ।”(संपादकीय 22 फरवरी 1970 )
पुलिस और जनता के परस्पर संबंधों का विवेचन करते हुए सहकारी युग ने मत व्यक्त किया कि वास्तविकता यह है कि पुलिस-प्रशासन का अस्तित्व नागरिकों में सुरक्षा की भावना बनाए रखने के लिए है । अतः यह आवश्यक है कि नागरिकों में पुलिस-कर्मचारियों के प्रति सद्भाव उत्पन्न हो।”( संपादकीय 14 मार्च 1970)
विद्यार्थियों को राजनीति में प्रयोग करते जाने की स्थिति पर चिंता व्यक्त करते हुए सहकारी युग अपने 29 मार्च 1970 के संपादकीय में लिखता है:” हमारे देश के कुछ वरिष्ठ ,समझदार ,निस्वार्थ किंतु परास्त अथवा विस्मृत नेताओं ने राजनीति को विद्यार्थी जीवन के लिए अभिशाप माना है। किंतु उनकी इच्छाओं के विपरीत आज राजनीतिक दलों को ताकत पहुंचाने के लिए प्रथक – प्रथक विद्यार्थी संस्थाएं भी कार्य कर रही हैं ।” सहकारी युग के अनुसार तो राजनीतिक दलों ने अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए छात्र वर्ग का न केवल अमूल्य समय नष्ट किया अपितु उनको विध्वंसात्मक गतिविधियों में लिप्त रहने का भरपूर प्रशिक्षण भी दिया ।” सहकारी युग में खरी- खरी वस्तुस्थिति उजागर कर दी इन शब्दों में कि “शिक्षा से दूर यह छात्र कहीं-कहीं उन गुंडों के समान बन रहे हैं जिनसे समाज को नफरत है लेकिन आज की रंग बदलती राजनीति में यह तथाकथित छात्र आवश्यक बनते जा रहे हैं ।”
29 मार्च 1970 के अंक में ही रामपुर रजा डिग्री कॉलेज के प्रथम प्रधानाचार्य श्री अब्दुल शकूर के देहावसान पर महेंद्र प्रसाद गुप्त की लेखनी से उनसे संबंधित आधे पृष्ठ का संस्मरणात्मक लेख प्रकाशित हुआ है जिससे श्री महेंद्र के विद्यार्थी जीवन के कार्यकलापों पर भी प्रकाश पड़ जाता है।
रामपुर नुमाइश के मुशायरे की रिपोर्ट सहकारी युग की साहित्यिक प्रवृत्ति के अनुरूप अनेक बार बहुत अच्छी छपीं मगर आधे प्रष्ठ की यह समीक्षा तो बिल्कुल भिन्न ही रही जिसमें महेंद्र गुप्त ने मुशायरे में सिर्फ एक लाइन सुनी और वापस आ गए । वह पंक्ति थी : “वह मिल रहे हैं हमसे मगर बेरुखी के साथ ” …..उस बार उपरोक्त पंक्ति की गुणवत्ता और व्यापकता पर प्रकाश डालने में ही सारी समीक्षा सिमट गई। सहकारी युग को उर्दू से प्यार रहा है और उसके संपादकीय में प्रायः उर्दू भाषा का पुट काफी जोरदार रहता है । उर्दू शायरों में उसके मतानुसार “एक अजीब सी मस्ती है, जिस का लुफ्त हर उस शख्स को मिल सकता है जिसका दिल – दिल है ,मांस का एक लोथड़ा नहीं ।”(सहकारी युग 31 मई 1970 )
भूतपूर्व भारतीय सेना अध्यक्ष श्री कुमार मंगलम की इस चेतावनी पर कि “भारत में सैनिक शासन भी संभव है” सहकारी युग ने विस्तृत विचार-विश्लेषण प्रस्तुत किया और पाया कि “सचमुच जनतंत्र को बचाने के लिए जनता को जागृत होना पड़ेगा ।”पत्र ने लिखा कि “स्वतंत्रता के बाद अधिकांश राजनीति स्वार्थ परक और प्रायः देशहित के विरुद्ध रही” तथा यह कि “भारत की स्वतंत्रता और जनतंत्र के लिए आज की राजनीति का रुख अत्यंत घातक है। राजनीति के वर्तमान स्वरूप को बदलने की दिशा में यदि सुव्यवस्थित ,सुसंगठित और सुदृढ़ पग न उठाए गए तो संभव है यह राजनीति हमारे देश को इतना खोखला कर दें कि वाह्य शक्तियां उसे दास बनाने पर उतारू हो जाएँ।”( संपादकीय 20 जून 1970 )
राजनीतिज्ञों द्वारा क्षुद्र स्वार्थों के वशीभूत प्रशासन को प्रभावित करने की दुष्प्रवृत्ति पर सहकारी युग का रोष सदा अभिव्यक्ति पाता रहा है। पत्र ने इसे देश का दुर्भाग्य बताया है कि “राजनीतिक नेता गण अपना अस्तित्व बनाए रखने के लिए प्रशासन का प्रयोग आवश्यक समझने के अभ्यस्त हो गए हैं।” पत्र की दृष्टि में तो “जनतंत्रात्मक प्रणाली की सफलता का रहस्य इसी में है जबकि प्रशासन और राजनीति दोनों एक दूसरे पर जनहित के निमित्त दृष्टि रखकर एक दूसरे के नाजायज दबाव में न आएँ।”( संपादकीय 21 जुलाई 1970 )
स्थानीय महत्व की जन समस्याएँ उठाने में भी सहकारी युग की साहित्यिक गंभीरता प्रकट होती रही । प्रमाण है 8 मई 1970 का संपादकीय जब रामपुर में पीने के पानी की अव्यवस्था पर पत्र ने रोषपूर्ण संपादकीय लिखा: ” प्रश्न पानी का ” शीर्षक से पत्र ने लिखा “आमतौर पर कहा जाता है कि पानी का बड़ा महत्व है । युद्ध के मैदान में यदि तलवार का पानी उतर जाए तो राज्यों की स्थिति में अंतर आ जाता है और समाज के लोगों की आँख का पानी उतर जाए तो उन्हें अशिष्ट और असभ्य कहा जाता है किंतु रामपुर जलकल विभाग की व्यवस्था में पानी का अभाव हो जाए तो क्या कहा जाए इसके लिए शब्दों का ढूंढना कठिन है।”
तात्पर्य यह कि सहकारी युग के पास एक सुरुचिपूर्ण दृष्टि सदा रही। चाहे इसने अंतर्राष्ट्रीय विषयों पर लेखनी चलाई हो या राष्ट्रीय महत्व के विषय पर कलम का उपयोग किया हो या फिर नितांत स्थानीय महत्व की घटनाओं को अपनी टिप्पणी का केंद्र बनाया हो । साहित्यिक उत्कृष्टता सदा ही पत्र की प्राणवत्ता रही । भाषा की सुगढ़ता, शैली का प्रभाव और विचारों की निष्पक्षता को सहकारी युग ने सदा अपनी मुख्य नीति के तौर पर अपनाया । इस पत्र ने बात को जोरदार तरीके से कहा ,जब जरूरत हुई तो जरूर कहा और जितनी बार जरूरत पड़ी ,उतनी बार दोहराने से परहेज भी नहीं किया । मगर जो कहा ,जमकर कहा। जागरूकता के साथ कहा ,गहरी जिम्मेदारी से कहा । पत्रकारिता के क्षेत्र में निरंतर बढ़ रहे हो हथकंडों पर पत्र ने सदा प्रहार किया । बहुधा पत्र की टिप्पणियाँ पत्रकारिता की मिशनरी भावना के पुनर्जीवित किए जाने से संबंधित रहीं। एक तड़प सहकारी युग में जलती रही कि किस प्रकार हिंदी पत्रकारिता को उस स्वर्णिम युग का स्पर्श कराया जा सके ? कैसे उन तपस्वी मूल्यों से जोड़ा जा सके जो गणेश शंकर विद्यार्थी और मदन मोहन मालवीय की पत्रकारिता के आधारभूत स्तंभ थे। सहकारी युग ने धर्म का वास्तविक रूप जनता के सामने निर्भयता पूर्वक रखा और आडंबरों में उलझने के स्थान पर सच्चे धर्म-स्वरूप के दर्शन जनता को कराए। निस्संदेह यह बड़े साहस का कार्य है । पत्रकारिता का पथ काँटों का पथ है ,यह अग्निपथ है । अंगारों पर चलना पत्रकारिता है। कलम का दायित्व महान है ,कलम की शक्ति असीम है ,कलम के उपयोग का लक्ष्य भी महान ही होना चाहिए । जो कलम बिक जाए या सच कहने से रुक जाए या किसी प्रलोभन या दबाव के आगे झुक जाए ,वह ईमान की कलम कहलाने का अधिकार खो बैठती है । कलम तो पूजा है ,तपस्या है ,मर्यादा की आराधना है ,जन-जागरण का महामंत्र है, राष्ट्र सेवा का सर्वोत्कृष्ट साधन है । सहकारी युग का अक्षर-अक्षर पत्रकारिता की श्रेष्ठता का प्रमाण प्रत्येक पृष्ठ पर अंकित कर रहा है।
वर्ष 1969 -70 में साहित्यिक वैचारिक रचनाक्रम में महत्वपूर्ण योगदान देने वाले रचनाकार इस प्रकार रहे : प्रोफेसर शिवा दत्त द्विवेदी, सुनामि, आनंद मिश्र शरद, उमाकांत दीप (मेरठ), रामावतार कश्यप पंकज ,डॉक्टर लखन लाल सिंह, महेश राही ,कल्याण कुमार जैन शशि, विश्वनाथ मेहरोत्रा, वाचस्पति अशेष ,किशोर, शैलेंद्र सागर, चतुर्भुज शर्मा, गिरिराज शरण अग्रवाल (संभल), कुमार विजयी,ल.द. पांडेय( राजकीय रजा महाविद्यालय), अशोक अनुज (मेरठ), निर्भय हाथरसी ,एम पी कश्यप आनंद (नैनीताल), मदन लाल शुक्ल (अध्यक्ष लोक सेवा मिशन), रामावतार (वियतनाम : सैगोन)। सहकारी युग की फाइल में 18 जनवरी 1970 (वर्ष 11 अंक 22) तथा 15 फरवरी 1970 (वर्ष 11 अंक 25) के मध्य के 2 अंक उपलब्ध नहीं हैं। दुर्भाग्य से गणतंत्र दिवस विशेषांक 1970 भी इन खोए अंकों में सम्मिलित है।