सरकारी दामाद
समाज का कल्याण करने वाले दफ्तर में दावत उड़ाई जा रही थी। इत्तफाक से वहां मेरा जाना भी हुआ। बिन बुलाए मेहमान की तरह मैं भी दावत में शरीक हो चुका था। इस दौरान बार-बार मेरे दिल में ख्याल आ रहा था कि दूसरों की जेब के दम पर चाय पीने और खुद को सरकारी दामाद कहलवाने के शौकीन इन बाबुओं को आज हुआ क्या है? उनकी दरियादिली मेरी समझ से परे थी। मेरे दिमाग में यही सवाल आ रहा था, क्या साल भर का नाश्ता एक ही दिन में निपटा दोगे?
इसी उधेड़बुन में दफ्तर से बाहर निकला ही था, एक सरकारी मध्यस्थ (दलाल) से मुलाकात हुई। उसने एक बूढ़ी अम्मा की तरफ इशारा किया। ”आज अम्मा की पेंशन मंजूर हो शुरू हो गई है। सोमवार तक खाते में रकम भी पहुंच जाएगी।” यह सुनकर मेरी उधेड़बुन सुलझ चुकी थी। कथित सरकारी दामादों की दरियादिली और हकीकत समझ में आ गई थी। दावत में शामिल होने के बाद खुद पर भी लानत महसूस हो रही थी।
© अरशद रसूल