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18 Feb 2021 · 5 min read

सरकारी दफ्तर में भाग (11)

कुछ देर बाद संजीव चयन समीति केे कक्ष में पहुुँचा और सभी चयन कर्ताओं को अपने जीवन का हाल बताया। संजीव केे जीवन का हाल सुुुनकर पाँचों अधिकारियों ने कहा, ‘‘बेेटा ! अब आप चिन्ता मत करोे। तुुम्हारा पेमेन्ट हम किये देेते हैं, आज तुम निराश होेकर अपने घर को नहीं जाओगे। अपनी ज्वाइनिंग करोे बेेफिक्र होेकर। संजीव केे चेहरे पर अभी ठीक से मुुस्कान भी नहीं आई थी और अधिकारियों ने उसके ज्वाइनिंग लेटर पर अपने हस्ताक्षर के लिए उसका लेटर उठाया ही था, कि उस चयन समीति के सबसेे वरिष्ठ अधिकारी के फोन की घन्टी बजी। उस अधिकारी ने फोेन उठाया ही था कि एक कैबिनेट मंत्री की आवाज सुुनाई दी।

मंत्री जी ने पूरे आवेश में पूछा, ‘‘कितने लोगों का चयन हो गया।
अधिकारी, ‘‘सर ! सभी का हो गया।’’
मंत्री, ‘‘और ज्वानिंग लेेटर कितनांे केे दे दिये।’’
अधिकारी, ‘‘सर! नौ दे दिये एक का देने जा रहा हूँ।’’
मंत्री, ‘‘कौन है ?’’
अधिकारी, ‘‘सर ! एक बालक है परीक्षा का टापर है, टाप सेे तीसरा है। और जरूरतमंद भी है।’’
मंत्री, ‘‘तुम्हारा रिश्तेदार है क्या। कितने रूपयेे दिये।
अधिकारी, ‘‘नही सर ! रिश्तेदार तो नहीं, लेकिन उसे इस नौकरी की बहुत जरूरत है और वह इस पद केे लिए सबसे उपयुक्त है। मैंने खुद उसका साक्षात्कार लिया है। और रूपये की बात है, तोे मैं दिये देता हूँँँ’।’’
मंत्री, ‘‘तो दो लाख रूपयेे मेरे खाते में डाल दे और जिसका चाहे उसे ये पद देदे।’’

अधिकारी शब्दहीन हो गया, मंत्री अधिकारी को फोन पर धमका रहे थे। अधिकारी शान्तचित होकर मंत्री की बात सुन रहे थे। अधिकारी का फोन स्पीकर पर था इसलिए चयन समीति के सभी अधिकारी, बाबू, चपरासी और संजीव उनकी इस बद्तमीजी को सुन रहे थे।

मंत्री, ‘‘देेखो बाहर एक लड़का बैठा हैै मुजाहिद हुुसैन नाम का अभ्यर्थी क्रमांक 49। उसके अब्बू ने हमारे चुनाव मेें जी-जान लगा दी थी और वो मेरे बचपन का दोस्त भी है। मैं उसको वादा भी कर चुका हूूँ। ये पद उसकेे बेटे को देदो। अधिकारी आगे कुछ भी कह पाता, उससे पहले ही फोन कट चुका था।’’

वोे अधिकारी जो संजीव के नियुक्ति पत्र पर हस्ताक्षर केे लिए कलम उठायी थी, उसने संजीव केे नियुुक्ति पत्र पर हस्ताक्षर करते हुए अपनी कलम तोेड़ दी, जैसेे किसी न्यायधीश मौत की सज़ा सुुनाने के बाद अपनी कलम तोेड़ा दी हो। क्योकि उस कलम की स्याही कागज पर फैलने से पहले ही उस मंत्री ने अपना आदेेश सुना दिया था।
सभी अधिकारियों ने एक नजर संजीव की ओर की, तो उनकी आँखों में शर्मिन्दगी के भाव साफ नजर आ रहे थे जो बार-बार कह रहे थे, ‘‘शारी बेटा। हम लोग तुम्हारी मदद करके भी नही कर पाये।’’ लेकिन संजीव भी उनकी मजबूरियों को समझ रहा था। उसनेे सभी अधिकारियोें सेे कहा, ‘‘सर ! आप लोगों ने अपनी ओर सेे पूरी कोशिश की, लेकिन शायद यह पद मेरे लिए था ही नही। सब कुुछ तो मेरी आँखों के सामने हुआ है तो मैं आपको दोष नही दूंगा।’’

संजीव अपनी नम आँखों के साथ बाहर निकल गया और तब तक वह बाबू भी अपनी सीट पर पहुँँच गया था। वह बाबू के पास पहुँचा जहाँ उसकी सारी डिग्रियाँ रखी हुयी थी। वहाँ पहुँँचा तो उसने देखा, कि वह बाबू उसी अभ्यर्थी का ज्वाइनिंग लेटर टाइप कर रहा था। उस वक्त उस टाइपराइटर की खटखट संजीव को एक शोर सी प्रतीत हो रही थी। लेकिन वह कुछ कर भी नही सकता था। कुछ देर बाद वह अभ्यर्थी भी अपना ज्वानिंग लेटर चला गया। वहीं टाइप मशीन के बगल में रखा संजीव का नियुक्ति पत्र जिस पर सिर्फ अधिकारियों केे हस्ताक्षर होने थे और उन हस्ताक्षर की कीमत थी सिर्फ 20,000 रूपये और जिसकी व्यवस्था भी हो चुकी थी, लेकिन राजनीति के ठेकेदारों ने उस नियुक्ति पत्र को रहने दिया था केवल कागज का एक टुकड़ा।
संजीव ने वही पड़ी एक बेंच पर ऐसे बैठ गया, जैसेे कोई योद्धा युुद्ध हारने के बाद अफसोस करने बैठा हो, कि मुझसे कहाँ गलती हो गयी। कुुछ देर बाद वही चपरासी संजीव के पास आया, उसकी हाथ में नाश्ते का कुछ सामान था, चाय और समोसे। अधिकारियों नेे चपरासी से कहकर वह संजीव के लिए भिजवायी थी। चपरासी ने उस बाबू को चाय देने के साथ-साथ संजीव को भी चाय दी और चाय देकर चला गया। शाम के 5ः00 बज चुके थे बाबू अपने घर जाने की तैयारी करने लगा। संजीव सुुबह 5ः00 बजे अपने घर से निकला था कुछ पैसे साथ लाया था, जो उन अधिकारियों के चाय-नाश्ता कराने में खर्च कर चुुका था। अब उसके पास सिर्फ उतने ही पैसे बचे थे, जितने वह अपने घर पहुुँच सकता था। शाम हो चुकी थी इसलिए संजीव को भूख भी लग रही थी। यही वजह थी कि चपरासी के देने पर संजीव ने वह चाय-नाश्ता ले तो लिया था, लेकिन जैसे ही संजीव चाय का एक घूंट पिया तो वह उस चाय को पी नही पाया, उसे वह चाय कड़वी लग रही थी। संजीव चाय तो नही पी पाया था, लेकिन उसने समोसा उठाया, तो उसकी नजर उस कागज पर पड़ी जिस पर रखकर वह समोसा लाया गया था। ये वही कागज था जिस पर कुछ देर पहले संजीव की पूरी जिन्दगी निर्धारित थी उसका नियुक्ति पत्र। उस कागज को देखकर संजीव न तो चाय पी सका और न ही वह समोसा खा सका, और उस बेंच केे पास रखे एक गमले में चाय फेंक दी, समोसा वहीं बेंच पर रखकर वह वहाँ से बाहर निकल गया। बाहर आकर उस इमारत को देखा, जिसे देखकर उसके अस्तित्व की पहचान होनी थी, अपने आँसूओं को रोक नहीं पाया। और बिलखकर रो पड़ा, काफी देर तक रोता रहा। कुछ देर बाद सारे अधिकारी, बाबू और चपरासी दफ्तर को बन्द करके बाहर आये, तो उन्होने देखा कि संजीव बुरी तरह से बिलख रहा है। तोे अधिकारियों ने बड़ी सहानुभूति देते हुये उसे समझाया और कहा, ‘‘बेटा कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।’’ लेकिन संजीव के अन्दर जो तूफान छिपा था, वह किसी की बात सुनने को तैयार नही था। क्योंकि उस दिन कोई एक अभ्यर्थी नही, बल्कि एक राजकुमार अपने ही महल से बेरोजगार लौट रहा था और दुनियावी परपंचों केे कारण एक पढ़-लिखा, योग्य व्यक्ति रह गया था बेरोजगार उस सरकारी दफ्तर में।

समाप्त 2.11.2016

कहानी समाप्त
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Language: Hindi
314 Views
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