सरकारी दफ्तर में भाग (10)
आविद और संजीव के बीच ये संवाद चल ही रहा था, कि चपरासी ने आविद का नाम पुकारा, ‘‘ अभ्यर्थी क्रमांक 47 आविद खाँ। अपना नाम सुनकर आविद ने अपनी जेब से अपना फोन निकाला और एक नम्बर डायल किया। आविद ने संजीव को हकीकत से रू-ब-रू कराने के लिए अपना फोन स्पीकर पर डाल दिया। घण्टी बजी फोन उठा, उधर से किसी ने फोन उठाया।
आविद ने कहा, ‘‘नमस्कार भाईजान!’’
उधर से जबाब आया कौन बोल रहा है। आविद बोला, ‘‘भाईजान मै आविद बोल रहा हूँ, चचा से बात करनी है। उस व्यक्ति ने फोन किसी दूसरे व्यक्ति को दिया। आविद ने उनसे कहा, ‘‘चचा नमस्कार ! आविद बात कर रहा हूँ, शमशेर मियाँ का बेटा।’’
उधर से आवाज आयी, ‘‘हाँ बोलो आविद।’’
आविद, ‘‘चचा अन्दर से बुलावा आ गया है जा रहा हूँ संभाल लेना आप, मेरा अभ्यर्थी क्रमांक 47 है।
उधर से जवाब आया, ‘‘चलो जाओ मैं देखता हूँ।
आविद से इस फोन के बारे में संजीव कुछ पूँछ पाता, कि इससे पहले वह साक्षात्कार के लिए चला गया। और कुछ ही देर में मुस्कराता हुआ वापस आ गया। उसके हाथ में ज्वाइनिंग लेटर था। जिस पर उस अधिकारी के हस्ताक्षर भी थे, जिसके हस्ताक्षर की कीमत संजीव से 20,000 रूपये मांगी गई थी। आविद को आता देख संजीव ने उससे कहा, ‘‘बहुत मुस्करा रहे हो, क्या हुआ।’’
आविद ने संजीव को अपना ज्वाइनिंग लेटर दिखाते हुए कहा, ‘‘होना क्या है यार। सलेक्शन हो गया। और क्या परसों से ज्वाइन करना है।’’
फिर संजीव ने पूछा, ‘‘ आविद भाई तुमने साक्षात्कार के लिए जाने से पहले किसको फोन किया था।’’
आविद ने कुछ मुस्कराते हुये कहा, ‘‘यार अब तुझे मैं क्या बताऊँ, यहाँ तो सब पैसे का खेल है। पैसे के आगे सब कुछ फेल है। मैंने उस वक्त जाने से पहले एक कैबिनेट मंत्री को फोन किया था, जिसे मेरे अब्बू ने पहले ही दो लाख रूपये दे दिये थे। और मंत्री जी ने कहा था कि अन्दर जाने से पहले मुझसे बात कर लेना, तो वही मैंने किया था। तुम्हारे हाईस्कूल, इण्टर, और ग्रेजुएजन में काफी अच्छे नम्बर हैं, इसलिए तुमसे सिर्फ 20,000 रूपये मांगे हैं।’’ और इतना कहकर आविद अपने घर चला गया।
उस वक्त संजीव के चेहरे पर 20,000 रूपये ने एक प्रश्न चिन्ह् सा खड़ा का दिया था। वह समझ नही पा रहा था। क्योंकि उसकी माँ जो उसी राजमहल की छोटी बहू थी, लेकिन वक्त के हालातों ने उसकी माँ को साहूकारों के घर झाडू पोझा करने के लिए मजबूर कर दिया था। और वह साहूूकारों के घर झाडू पोझा करती थी। उसी से उसके घर का खर्चा चलता था। उसके दादा, परदादा की जायदाद उसकी आँखों के सामने थी, वो महल जो अब एक सरकारी दफ्तर के रूप में तब्दील हो चुका था। उसका मन वेदना से भरा हुआ था। इतने में दफ्तर का वही चपरासी आया और बोला, ‘‘चलो तुम्हे साहब बुला रहें हैं।’’ चपरासी के इतने कहने पर संजीव के मन में थोड़ी सी उम्मीद जगी और इस उम्मीद से कि शायद इस बार उसकी किश्मत की चावी और दादा जी के राजमहल के अन्दर उसके भाग्य का ताला खुल जाये, शाायद मेरी योग्यता आौर नौकरी के बीच बनी 20,000 रूपये की दीवार टूट जाये। इसलिए वह एक बार फिर गया अपनी सारी डिग्रियाँ लेकर उस सरकारी दफ्तर में। लेकिन शायद उसे यह मालूम नहीं था कि वह घोर कलियुग में सच्चाई की नाव पर बैठकर अपने जीवन नाव को खेने जा रहा है। संजीव जैसे ही उस बाबू के पास पहुँचा, बाबू का चेहरा एक प्रश्न चिन्ह् की भाँति प्रतीत हो रहा था। संजीव को देखकर उसने पूँछा, ‘‘क्यों व्यवस्था हो गई कि नहीं। उसनेे संजीव को फाइनल सलेक्शन की वह लिस्ट दिखाई, जिसमें 9 लोगों का चयन हो चुुका केवल व्यक्ति का चयन होना बाकी था। और उसके लिए संजीव को मिलाकर कुल चार (04) दावेदार शेष बचे थे।
वह बाबू संजीव से बार-बार यही प्रश्न कर रहा था, कि सभी अधिकारी तुम्हे इस पद पर देखना चाहते है, लेकिन संजीव के पास उनके इस प्रश्नों का कोई जवाब नहीं था। बहुत देर सोच-विचार के बाद संजीव बोला, ‘‘बाबूजी मेरे पास इतने पैसे नही हैं मैं बहुत गरीब हूँ क्या मेरी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की गई परीक्षा और मेरा साक्षात्कार इस 20,000 रूपये की दीवार को तोड़ नही सकता ? मेरे पिता जी भी नही है और मेरे दादा, परदादा की धन जायदाद भी नहीं है। मेरी माँ झाडू, पोझा करती है, मेरी माँ ने बहुत संघर्ष करके मुझे यहाँ तक पहुँचाया है। क्या मेरा एक का चयन निः शुल्क नहीं हो सकता। संजीव की बात सुनकर वह बाबू थोड़ा सहानुभूति के साथ बोला, ‘‘बेटा मेरा बस चलता, तो मैं अभी तेरा ज्वानिंग लेटर दे देता। लेकिन मैं भी तो अपने अधिकारियों के आधीन हूँ। और रही बात निः शुल्क की तो ऐसा नही कि सारे चयन पैसे लेकर भी हुए हैं। पाँच-छः लोगों का चयन निःशुल्क हुआ है। और वो 5-6 लोग ऐसे हैं जो ग्रेस लगकर पास हुये है।
संजीव ने पूछा, ‘‘तो उनका कैसे चयन हो गया।’’
बाबू, ‘‘हो कैसे गया। सबके बाप मंत्रियों के आगे दुम हिलाते फिरते हैं। और कैसे हो गया।’’
इतने में उस बाबू के फोन की घंटी बजी, बाबूू ने फोन उठाया। फोन भी संजीव केे संबंध में ही था। बाबूू ने फोन को स्पीकर पर डाला।
अधिकारी ने बाबू से पूछा, ‘‘कि क्या संजीव ने व्यवस्था कर दी।
बाबू, ‘‘नही सर ! वो व्यवस्था नहीं कर सका, सर उसके घर की आर्थिक स्थिति बहुत खराब है, उसके पास इतने पैसे नहीं है। सर उसे ले लीजिए न। कुछ पैसे नहीं होगे तो घाटा नही आ जायेगा। अगर पैसेे इतने ही जरूरी हैं, तो कुछ पैसे मैं दिये देता हूँ और कुछ आप लोग दे दीजिए। लेकिन आज किसी लायक अभ्यर्थी को निराश मत कीजिए प्लीज।
अधिकारियों ने उत्तर दिया, ‘‘देखो बाबू जी हम आपकी भावनाओं की कद्र करते हैं, लेकिन हमारे हाथ भी बंधे हुए हैं। हम कुछ नहीं कर सकते हैं। ऊपर से कैविनेट मंत्रियों के फोन आ रहें हैं, कि पहले मेरा बन्दा लगेगा। अब तुम ही बताओं हम क्या कर सकते हैं। हमको भी तो अपनी नौकरी बचानी है।
बाबूूू ने कहा, ‘‘सर ! साढे चार बज चुुुकेे हैं, और अभी एक चयन होना बाकी है। अब तोे कोई सिफारिश वाला अभ्यर्थी भी नहीं है। इसी बच्चे का कर दीजिए।
कहानी अभी बाकी है…………………………….
मिलते हैं कहानी के अगले भाग में