सम्राट अशोक
कर्तव्य का भी भान था,
शिवा शिवम का ध्यान था।
जब हाथ में कृपान था,
अशोक तब महान था।
त्रिपुंड लगा भाल में,
रुद्राक्ष गले माल में।
गृह रुद्र का शिवाला था,
हाथ शिव का भाला था।
विजय संकल्प प्रण में,
अजेय रहा रण में।
अशोक दूरगामी था,
सम्राट बहुत नामी था।
कलिंग का संग्राम में,
असंख्य कत्लेआम में।
विषाद मन तमाम था।
तब युद्ध से विराम था।
शरण गया जब बुद्ध के,
निरुद्ध हुआ युद्ध के।
निर्मूल हुआ क्रुद्ध था।
जो राज्य के विरुद्ध था।
सम्बुद्ध हुआ बुद्ध में,
रुचि न रही युद्ध में।
बस धम्मपद अवबद्ध था,
तब राज पथ आबद्ध था।
रण दण्ड पुरस्कार हो,
तब राज्य का विस्तार हो।
अशोक न यतन किया,
और राज्य को पतन दिया।
-सतीश सृजन लखनऊ.