सम्मान की निर्वस्त्रता
युग परिवर्तित हो चला, पर कुंठा अभी भी वही सताये।
सत्य पराजित हो रहा, और असत्य सर्वत्र जीतता जाये।
प्रकाशित हो रहा जग सारा, पर अंधेरे से कोई निकल ना पाये।
छिपाने को अपनी निर्बलता, दुर्बल पर ये बल आजमाये।
चीरहरण नहीं होते हैं अब, पर सम्मान की निर्वस्त्रता से कौन बचाये।
स्वंय के सुख तो फीके लगते, जब दुख पराये मनोरंजन बन जाये।
गौरव् का तो गान चल रहा, पर मन की नपुंसकता कोई सुन ना पाये।
हलाहल-पान तो शंभु कर चले, पर जिह्वा की विष-वृष्टि से कौन बचाये।
कलंकित करते निश्छल मन को, और अभ्यस्त हैं वो, ये कह कर जाये।
उज्ज्वल भविष्य के सपने गढ़कर, षड्यंत्रों की लड़ी लगाये।
शिक्षा का तो स्तर बढ़ चला, पर अज्ञानता ने पग हैं फैलाये।
मानवता की सीमा टूट रही, अब संवेदनाओं को कौन बचाये।