— सम्झौता –
ऐ जिंदगी
कदम दर कदम
तुझ से क्यूँ सम्झौता
किया जाए
शौंक है जीने का
सब को होता है
इतना भी नहीं कि
मर मर के ही जीया जाए
जब चाशनी में डूबी
जलेबी की तरह
हर वक्त उलझी सी है
हमारी जिंदगी
तो सुन क्यूँ न तुझ
को भी इस चाशनी में
डूबा डूबा कर
मजा लिया जाए ओ जिंदगी
जीने न देती ठीक है
उलझा उलझा कर कट रही है
तुझ को भी तो
पतंग के पेंचों सा
क्यूँ न उलझा के जिया जाए ऐ जिंदगी
अजीत कुमार तलवार
मेरठ