Sahityapedia
Sign in
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
26 Mar 2024 · 14 min read

समीक्षा- रास्ता बनकर रहा (ग़ज़ल संग्रह)

समीक्ष्य कृति- रास्ता बनकर रहा ( ग़ज़ल संग्रह)
ग़ज़लकार- राहुल शिवाय
प्रकाशक- श्वेतवर्णा प्रकाशन, नई दिल्ली
संस्करण – प्रथम ( 2024)
मूल्य -249 (पेपरबैक)
रास्ता बनकर रहा: एक जनवादी ग़ज़ल संग्रह
“राहुल शिवाय अपनी ग़ज़लों में केवल यथास्थितिवाद का शोकगीत ही नहीं लिखते और न ही पस्त-हिम्मत होकर ख़ाली-ख़ाली नज़रों से आसमान की ओर निहारते रहते हैं। उनकी वस्तुवादी और अत्यंत ही सहज ग़ज़लें बहुसंख्यक जन-साधारण को चौंकाती या स्तब्ध नहीं करतीं,बल्कि उन्हें बेचैन करती हैं, जगाती हैं और इन जटिल समस्याओं से निजात पाने के लिए प्रेरित करती हैं तथा कभी हार न मानने के उत्साह का संचार भी करती हैं।” ये विचार हैं आदरणीय नचिकेता जी के राहुल शिवाय जी की ग़ज़लों को लेकर। “रास्ता बनकर रहा” ग़ज़ल संग्रह की ग़ज़लों से गुज़रते हुए आदरणीय नचिकेता जी की बात कहीं से भी अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं लगती।
इस ग़ज़ल संग्रह की भूमिका लिखी है, रुड़की (हरिद्वार) निवासी नामचीन ग़ज़लकार, समीक्षक एवं संपादक श्री के पी अनमोल जी ने। वे अपनी भूमिका में लिखते हैं “राहुल का ग़ज़लकार पक्ष अपने तेवर और भाषा के मुहावरे के दम पर भी ध्यान आकर्षित करता है। जहाँ एक ओर इनके पास साफ़ और बेलाग बात करने की जुर्रत है वहाँ दूसरी ओर मजबूत और अलहदा भाषाई मुहावरा भी है जो इस रचनाकार को दूसरे अन्य ग़ज़लकारों अलग करता है।”
‘रास्ता बनकर रहा’ आज के चर्चित साहित्यकार राहुल शिवाय जी का पहला ग़ज़ल संग्रह है। इस ग़ज़ल संग्रह में पिछले 17 वर्षों में कही गई ग़ज़लों को सम्मिलित किया गया है। 17 वर्षों का कालखंड बहुत ही लंबा होता है। अतः इसमें राहुल जी द्वारा आरंभिक दौर में लिखी गई ग़ज़लें भी हैं और आज के समय में, जब वे सोच और शिल्प की दृष्टि से परिपक्व हो चुके हैं,लिखी गई ग़ज़लें भी। परंतु संग्रह की ग़ज़लें पढ़कर यह समझ पाना बहुत ही मुश्किल है कि कौन-सी ग़ज़ल आरंभिक दौर की है और कौन-सी ग़ज़ल संग्रह के प्रकाशित होने के कुछ समय पूर्व लिखी गई है। यह इस बात को दर्शाता है कवि के अंतर्मन में कविता के संस्कार सदैव से विद्यमान रहे हैं। इस ग़ज़ल संग्रह से पूर्व राहुल जी के अनेक विधाओं के संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। आप दोहा ,गीत, नवगीत के एक सशक्त हस्ताक्षर हैं। आपने जिस किसी विधा में लेखनी चलाई है, उसमें अपनी अमिट छाप छोड़ी है। सुधी पाठकों और आलोचकों का ध्यान बरबस ही अपनी ओर आकृष्ट करने में सक्षम राहुल जी इस ग़ज़ल संग्रह में अनेक रूपों में उपस्थित मिलते हैं।
जिस तरह छायावाद के चार प्रमुख स्तंभों में से एक सुमित्रानंदन पंत जी ने अंतर्मन में कविता की अजस्र धारा के प्रवाहित होने के लिए ‘वियोगी होगा पहला कवि’ को अनिवार्य शर्त माना था उसी तरह राहुल जी भी मानते हैं कि शायर होने के लिए यह आवश्यक है कि व्यक्ति के अंदर एक दर्द हो। लोगों के दुख-दर्द को महसूस किए बिना और उसको जिए बिना शायरी करना संभव नहीं होता, भावों की गहराई और हृदय को छू लेने की ताकत एक शायर अपने शे’र में तभी पैदा कर पाता है। शब्दों की जोड़-गाँठ करके काफ़िया और रदीफ मिलाकर लिख देने से ग़ज़ल नहीं बनती; इसके लिए भावों को सूक्ष्मता से समझकर शे’र में पिरोना आना चाहिए।
दर्द बिना यह मुश्किल है
राहुल कोई शायर हो (पृष्ठ-62)
फ़क़त ग़ज़ल ही कहे से नहीं ग़ज़ल बनती
बुनाई भाव की इसमें महीन रखता हूँ (पृष्ठ-87)
शायर राहुल जी ग़ज़लों में समाज और राजनीति का एक विद्रूप चेहरा हमारे सामने रखते हैं। जाति-धर्म आज की राजनीति का एक अहम हिस्सा है। यह राजनीतिक चाल तब और प्रखरता के साथ सामने आ जाती है जब आम चुनाव होते हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों के नेता वोटों का ध्रुवीकरण करने लिए मंदिरों के चक्कर काटते दिखाई देने लगते हैं। जिस बेबाकी के साथ नेताओं की प्रकृति को निम्न शे’र में व्यक्त किया गया है,वह काबिलेतारीफ है।
भेड़िये दरवेश बनकर मंदिरों में जा रहे,
क्या नहीं होगा अभी सत्ता बचाने के लिए
आज आवश्यकता इस बात की है कि समाज का प्रबुद्ध वर्ग इस बात के लिए प्रयास करे जिससे अमन-चैन कायम रहे। लेकिन वास्तव में ऐसा होता दिखाई नहीं देता। लोग ऐसे लोगों के साथ खड़े दिखाई देते हैं जो अराजक कार्यों में रुचि लेते हैं। अब अराजकता को फैलाने वाले उनके पक्षधरों का बोलबाला जहाँ भी होगा ,वहाँ तो जंगल जैसी कानून व्यवस्था ही दिखाई देगी। नगर में रहने वाले लोग भी यदि सभ्य और संस्कारित आचरण को भूलकर जानवरों जैसा आचरण करते हैं तो राहुल जी लिखने के लिए विवश हो जाते हैं।
मेमनों के जो बड़े नाखून करना चाहते हैं
शांति की संभावना वे न्यून करना चाहते हैं
× ×
जंगलों से आ गये हैं इस नगर में लोग कुछ और
जंगलों जैसा यहाँ क़ानून करना चाहते हैं (पृष्ठ-25)
रोज़गार की तलाश में लोग एक जगह से दूसरी जगह जाते हैं। चाहे पक्षी हों मनुष्य सभी को दाना-पानी की तलाश में परदेश जाना पड़ता हैं। इसलिए इस बात को नकारात्मक रूप से मुद्दा नहीं बनाया जाना चाहिए। जो लोग शहरों का रुख करते हैं वे केवल वहाँ की सुख-सुविधाओं का ही उपभोग नहीं करते अपितु वहाँ के विकास में भी अपना योगदान करते हैं।
ये परिंदे शौक़ से आये नहीं हैं शह्र में
हम भी तो जाते हैं दिल्ली आबो-दाने के लिए (पृष्ठ-19)
पेड़ पौधे हमारे पर्यावरण का एक अहम हिस्सा हैं लेकिन जिस प्रकार आज पेड़-पौधों को बेदर्दी से काटा जा रहा है वह चिंताजनक है। बात चाहे विकास के नाम पर पेड़ों को काटने की हो या फिर जरूरतों के नाम पर। पेड़ों की यह अंधाधुंध कटाई न केवल प्राकृतिक सौंदर्य की दृष्टि से हानिकारक है बल्कि बरसात पर भी इसका नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। अतः पेड़-पौधों को बचाना बहुत जरूरी है।
न होंगी तितलियाँ, न फूल-फल, न बरसातें
हमारी चाहतों में गर शजर नहीं होगा (पृष्ठ-27)
देश एवं समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार में किस तरह ऊपर से नीचे तक सबकी भागीदारी होती है और जब इस भ्रष्टाचार का खुलासा होता है तो छोटे कर्मचारी को दोषी मानकर उसे सज़ा दी जाती है, यह राहुल जी की ग़ज़ल के इस शे’र से समझा जा सकता है। भ्रष्टाचार का आलम यह है कि बहुत सी योजनाएँ रजिस्टर पर ही चलती रहती हैं तथा योजनाओं के रजिस्टरों में लाभार्थियों के नाम पर ऐसे लोगों के नाम होते हैं जो अपात्र होते हैं। पात्र लोगों का हिस्सा हड़पने वाले कितनी चतुराई से काम करते हैं इसकी बानगी दूसरे शे’र में देखी जा सकती है।
दरबार तक की तय थीं जहाँ हिस्सेदारियाँ
पकड़ी गयी जो चोरी, सिपाही का दोष है (पृष्ठ-28)
रजिस्टरों में वे मेहनतकशों में शामिल हैं
कि जिनके हाथों में दिखते नहीं मेहनत के निशान ( पृष्ठ-40)
लोगों के अंध-विश्वास और रूढ़िवादिता का लाभ उठाकर लोगों का भावनात्मक शोषण हमारे समाज में बदस्तूर जारी है। इन पाखंडियों के चंगुल में फँसने वाले लोग इस बात को नहीं समझ पाते कि टोना-टोटका और गंडा-ताबीज से समस्या का हल करने वाला यदि इतना ही सिद्ध पुरुष होता तो सबसे पहले वह अपनी समस्याओं का समाधान करता। जो अपने दुख-दर्द दूर नहीं कर सकता, अपना भविष्य उज्ज्वल नहीं बना सकता, वह दूसरों की मदद कैसे कर पाएगा।
अहले-जहां को वे रहे ताबीज़ बाँटते
जो आफ़तों से ख़ुद को बचा भी नहीं सके ( पृष्ठ-29)
अतिवृष्टि, अनावृष्टि, ज्वालामुखी विस्फोट और भूकंप आदि ऐसी घटनाएँ हैं जिनके माध्यम से समय-समय पर प्रकृति मानव को संदेश देती है कि मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का दोहन सोच-समझकर करे, अन्यथा उसके गंभीर परिणाम भुगतने पड़ेंगे। पर मानव है कि वह समझने के लिए तैयार ही नहीं होता।
दे रही हमको कुदरत भी पैग़ाम कुछ
यूँ ही डोली नहीं है सतह आज फिर (पृष्ठ-31)
सत्य बात को मनवाना आसान नहीं होता। कारण स्पष्ट है कि सच में लोगों को चटखारे लेकर सुनने या बात का बतंगड़ बनाने का अवसर उपलब्ध नहीं हो पाता। लोग सच को अफवाह और अफवाह को सच में इसीलिए बदल देते हैं जिससे उन्हें मसाला मिल सके।
जो सच था उसको लोगों ने अफ़वाह कह दिया
सच्ची ख़बर में उनको मसाला नहीं मिला ( पृष्ठ-36)
जब तक हम अपनों के साथ रहते हैं तब तक उनकी अहमियत पता नहीं चलती। जब हम उनको छोड़कर दूर परदेश आ जाते हैं और हमें वहाँ अपनापन नहीं मिलता, दुख-दर्द को समझने वाला, मुश्किल वक़्त में मदद करने वाला नहीं मिलता तब उनकी कमी शिद्दत के साथ महसूस होती है। अपने अपने ही होते हैं और पराये पराये। राहुल जी का निम्न शे’र इसी भाव को व्यक्त कर रहा है।
अहमियत रिश्तों की हमको तब समझ में आ गयी
शह्र की गलियों में जब हम छोड़ अपना घर गए ( पृष्ठ-43)
आधुनिकता की चमक-दमक ने नैतिक-मूल्यों को धूमिल कर दिया है। रिश्तों के प्रति भावनात्मक लगाव में कमी आई है। आज हामिद प्रेमचंद जी के ‘ईदगाह’ कहानी का हामिद नहीं है जो दादी के दर्द को महसूस करे और चिमटा खरीद कर ले आए। वह तो मेला जाकर अपनी मौज-मस्ती में सब कुछ भूल जाता है। हामिदों ये बदलता हुआ किरदार समाज के लिए चिंता का सबब है जो शायर को व्यथित करता है।
नये इस दौर में हामिद के भी किरदार हैं बदले
वो मेले की चमक में दादी माँ को भूल जाते हैं ( पृष्ठ-45)
सियासतदानों की चालाकियों को पकड़ने लिए एक तीक्ष्ण दृष्टि की आवश्यकता होती है। वह तीक्ष्ण दृष्टि निश्चित रूप से राहुल जी के पास है तभी तो वे इस बात को समझ लेते हैं कि सरकारों द्वारा मुफ़्त में एंड्रायड मोबाइल बाँटकर उनके माध्यम से जनता को उन पर दिखाए जाने वाले विज्ञापनों के माध्यम से बाहरी बाज़ार की चीज़ों के प्रति आकर्षण को हम तक पहुँचाने का प्रयास है। मल्टीनेशनल कंपनियों के उत्पाद ,जो मोबाइल पर विज्ञापन के रूप में दिखाए जाते हैं वे स्वदेशी उत्पादों की राह मुश्किल बना रहे हैं।
एक मोबाइल थमाकर चाल उसने यूँ चली
बाहरी बाज़ार का इस घर पे क़ब्ज़ा हो गया ( पृष्ठ-47)
जीवन की सूक्ष्मताओं को समझने और जीवन-मूल्यों के विकास के लिए अच्छी पुस्तकों और धार्मिक ग्रंथों को पढ़ना और उनमें बताई गई बातों को अमल में लाना जरूरी होता है। यदि व्यक्ति केवल पढ़ने के लिए पढ़ता है, उसमें कोई बदलाव नहीं आता है ,तो फिर उसे पुस्तकों का अध्ययन करना छोड़ देना चाहिए। बात है कड़वी, मगर है पूरी तरह सच।
जो पढ़ा उस पर न कर पाये अमल
इससे अच्छा है कि पढ़ना छोड़ दो ( पृष्ठ-57)
आस-पास का वातावरण हमारी मानसिकता और काम करने के तरीके को प्रभावित करते हैं। प्यार को लिखने के लिए माहौल भी प्रेम से परिपूर्ण होना चाहिए। यदि हमारा आस-पड़ोस घृणास्पद होगा तो प्यार के शे’र नहीं लिखे जा सकते। आज हमारे देश में जिस प्रकार का नफरत का माहौल है उसमें कोई सच्चा शायर प्रेम की शेरो शायरी नहीं कर सकता।
आयेंगे शेरों में मेरे कैसे क्रिस्से प्यार के
मुल्क का माहौल जब इतना घिनौना हो गया ( पृष्ठ-58)
ज़िंदगी की मुश्किलें हमें सँवारती हैं। इसलिए उतार-चढ़ाव आवश्यक होते हैं। राहुल जी अपने शेर में लिखते हैं कि यदि ज़िंदगी में जरूरत से अधिक सुख-सुविधाएँ होती हैं तो वह बोझ बन जाती है। इतना ही नहीं ,वे कहते हैं कि मैं लिखने के लिए नहीं लिखता अपितु घुटन और बेचैनी को कम करने के लिए लिखता हूँ। लोग घुटन से बाहर आएँ, अपनी चुप्पी को तोड़ें तथा ग़लत का विरोध करें, इसे अपनी नियति मानकर न बैठें।
मुश्किलें साथी न हों तो ज़िन्दगी किस काम की
हो सतह चिकनी बहुत तो कोई चल सकता नहीं
जान ले लेगी किसी दिन ये घुटन, ख़ामोशी ये
सिर्फ़ लिखने के लिए तो शेर मैं लिखता नहीं ( पृष्ठ-59)
अपने आपको तरोताज़ा रखने के लिए मुस्कुराना जरूरी है। पर समस्या यह है कि जीवन की कठिनाइयां और आपाधापी ने हमारी मुस्कराहट छीन ली है। यदि हम अपने अंदर के बच्चे को ज़िंदा रखें तो हम सुकून को वापस पा सकते हैं। राहुल जी के शे’र में दी गई यह सलाह एक गंभीर समस्या का हल है।
कहते हैं किसको सुकूं ये बात गर हो जानना
बचपने पर आप थोड़ा मुस्कुराकर देखिए ( पृष्ठ-65)
सियासत की बहस आपसी कटुता और वैमनस्य को जन्म देती है। इससे इंसान इंसान नहीं रह जाता। बड़े ही सरल ढंग से एक गंभीर विषय को शे’र में व्यक्त किया गया है।
ये सियासत की बहस, हावी न कर जज़्बात पर
इस ज़हर से ज़िन्दगी की खूबियाँ मर जाएँगी (पृष्ठ-68)
समाज में बेटियों की स्थिति में सुधार और उनके सम्मान के लिए समाज में जनजागरण आवश्यक है। बेटा-बेटी एक समान ; बेटी बचाओ,बेटी पढ़ाओ। जैसे नारे इसी बात के द्योतक हैं। राहुल शिवाय जी भी बेटियों की स्थिति को लेकर चिंतित हैं , उनके अंदर एक आक्रोश का भाव है और वे कहते हैं कि मैं उसे ही इंसानों में गिनता हूँ जो बेटी को भी बेटे की तरह अपनी संतान मानते हैं।
जो भी गिनती कर रहे हैं बेटी की संतान में
मैं उन्हें ही गिन रहा हूँ आजकल इंसान में ( पृष्ठ-69)
सहनशीलता नारी का गुण माना जाता है लेकिन जब सहनशीलता हद से ज्यादा बढ़ जाती है तो वह उसके शोषण का कारण भी बन जाती है। भले ही समाज में नारी की स्थिति में सुधार हो रहा हो लेकिन आज भी नारी अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति का त्याग नहीं कर पा रही है। इतना ही नहीं वह अपनी बेटी को भी यही सीख देती है कि वह ग़लत बात का विरोध न करे अपितु चुपचाप सहन कर ले। महिलाओं को इस स्थिति को बदलने के लिए आगे आना होगा और ग़लत को ग़लत कहना सीखना होगा।
जुल्म को सहने की आदत पड़ चुकी है दोस्तो!
माँ भी कल ख़ामोश थी, अब बेटी भी ख़ामोश है (पृष्ठ-72)
धीरे-धीरे समाज बदल रहा है। बदलाव की यह बयार शहर से गांव तक पहुँच चुकी है। ग्रामीण परिवेश पूरी तरह बदल गया है। चौपालों के युग का अंत हो गया है। गांव की युवा पीढ़ी जो चौपालों पर बैठकर बुज़ुर्ग लोगों से तरह-तरह की बातें सीखा करती थी अब वह दृश्य दिखाई नहीं देता। इसी ग़ज़ल के एक अन्य शे’र में वे कहते हैं कि रिश्तों में अनबन होने पर मान-मनौवल करना आम बात है लेकिन यह मनाना ऐसे होता है , जैसे त्यौहार। कहन का यह अनूठापन राहुल शिवाय जी को समकालीन ग़ज़लकारों में अग्रिम पंक्ति में लाकर खड़ा कर देता है।
चौपालें पढ़ती थीं उनको सुबहो-शाम
गाँव के कुछ बूढ़े, अखबारों जैसे थे
× ×
उनको तो हर रोज़ मनाना पड़ता था
रिश्ते कुछ बिल्कुल त्योहारों जैसे थे (पृष्ठ-75)
घर के बड़े- बुज़ुर्ग का निरादर एक आम बात हो गई है। घर के बच्चे न उन्हें आदर-सम्मान देते हैं और न उनसे प्यार से बात करते हैं। यह बात शायर को व्यथित करती है और वह आक्रोश में कहता है कि ऐसी औलाद होने से तो अच्छा है व्यक्ति बेऔलाद रहे।
खोजती हैं बूढ़ी आँखें प्यार सबकी आँखों में
या ख़ुदा ! औलादें ऐसी तू किसी के घर न दे (पृष्ठ-76)
‘भूखे भजन न होइ गोपाला’ वाली कहावत को चरितार्थ करते हुए राहुल जी लिखते हैं कि आज भी समाज में एक वर्ग ऐसा है जिसके पास खाने के लिए दो जून की रोटी नहीं है। उनके माँ-बाप बच्चों का पेट भरने के विषय में सोचें या उन्हें पढ़ाने -लिखाने के बारे में। यह स्थिति अपने आपमें अत्यंत भयावह है, किसी भी समाज के लिए।
वो जो बच्चे अभी मोहताज हैं निवालों के
उनके हाथों में मैं रोटी दूँ या किताबें दूँ (पृष्ठ-81)
किसान जो दिन-रात मेहनत करता है, मौसम की मार झेलकर फसल उगाता है पर उसे उसकी फ़सल का उचित दाम नहीं मिलता। कई बार तो उसकी लागत भी वसूल नहीं हो पाती पर उसकी सुनने वाला कोई नहीं। मंडियों में बैठे हुए बिचौलिए उनकी मजबूरी का फायदा उठाकर करोड़ों में खेलते हैं।
कृषक तो देह गलाकर भी कुछ नहीं पाते
फ़सल की मौज यहाँ पर दलाल करते हैं (पृष्ठ-84)
चाटुकारिता एक ऐसा हुनर है जो सबके पास नहीं होता। कोई खुद्दार व्यक्ति कभी किसी की चापलूसी नहीं कर सकता। आज के समय में कामयाबी के लिए गुण की अपेक्षाकृत मीठी जबान का होना बहुत जरूरी है। यह वह व्यंग्य है जो आँखें खोलने के पर्याप्त है। हर वह व्यक्ति सफल है यह जरूरी नहीं उसने वह सफलता अपने गुणों से हासिल की हो।
फ़क़त लियाक़तों से कब मिली है याँ मंज़िल
मुझे तो शीरीं ज़बानों का हुनर लगता है (पृष्ठ-88)
बाल विवाह एक सामाजिक बुराई है। इस बुराई को दूर करने के लिए जन-साधारण को जागरूक करना बेहद जरूरी है। पर समस्या यह है कि आम आदमी को लड़की के जीवन में पढ़ाई-लिखाई की महत्ता समझ में आती ही नहीं। उन्हे तो यह लगता है कि लड़की का तो जन्म ही चूल्हा-चौका करने के लिए हुआ है। बेटी की शादी करना उनकी एक सामाजिक जिम्मेदारी है और वे जल्द-से-जल्द बेटी का विवाह कर अपनी जिम्मेदारी से निवृत्त हो जाना चाहते हैं।
उन्हें सुनाओ नहीं आसमान के क़िस्से
वे अपनी चिड़िया का जल्दी विवाह कर देंगे ( पृष्ठ-92)
उद्यमेन हि सिद्धयन्ति कार्याणि न मनोरथैः। नहिं सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः। कुछ यही भाव राहुल जी ने अपने निम्न शे’र में व्यक्त किया है। ऐसा कोई मसला नहीं होता जिसका हल न निकाला जा सके। जिस तरह सामने रखी हुई थाली से भोजन स्वयं व्यक्ति के मुँह में नहीं जाता उसे हाथ से उठाकर अपने मुख में रखना पड़ता हैं उसी प्रकार समस्या का हल बैठकर सोचने से नहीं , प्रयास करने से होता है।
रोटियाँ थाली से ख़ुद ही मुँह तलक आतीं नहीं
कोशिशों से मसअले के हल, खड़े हो जाएँगे (पृष्ठ-100)
धीरे-धीरे इंसानों से अदब गायब होता जा रहा है। राहुल जी इस बात को लेकर चिंतित हैं। वे आधुनिक समाज में ऐसे लोगों को ढूँढते हैं जिनके अंदर तहजीब हो, संस्कार हो। आज के समय में लोगों के अंदर अदब को खोजना ऐसे ही है जैसे गोमतीनगर में पुराने लखनऊ की नजाकत और नफ़ासत को खोजना। बहुत ही सटीक उपमा का प्रयोग शायर के द्वारा किया गया है।
अपने दूसरे शे’र में शायर ने इस बात को स्पष्ट किया है कि लोग ज़रा सी बात में आवेश में आ जाते हैं ,उनका यह गुस्सा दूध में आए उबाल की तरह होता है। थोड़े से पानी का छीटा मारो ,दूध का उफान गायब हो जाता है। शायर ऐसे लोगों की तलाश में है जिनके खून में उबाल हो, जो देश और समाज की बुराइयों को देखकर उन्हें दूर करने के लिए उद्यत हों।
इंसानों में अदब की ख़ुशबू को ढूँढता हूँ
ज्यों गोमतीनगर में लखनऊ को ढूँढता हूँ
हर बात पर उफनते हैं दूध की तरह वे
पर मैं उबाल वाले लोहू को ढूँढता हूँ (पृष्ठ-102)
समझौतावादी लोग कभी भी जीवन में तरक्की नहीं कर पाते। परिस्थितियों को वे अपनी नियति मान लेते हैं और उसी में खुशियाँ तलाशने लगते है। राहुल जी का यह शे’र दुष्यंत कुमार जी के ‘न हो कमीज तो पाँवों से पेट ढक लेंगे।’ से साम्य रखता है।
उसके हिस्से में होगा दिन का उजाला कैसे
जिसको जुगनू की रोशनी में बहुत खुश देखा (पृष्ठ-105)
राजनीति के एक विकृत रूप को निम्नांकित शे’र में प्रस्तुत करते हुए राहुल जी लिखते हैं कि जो राजनेता चार्टर्ड प्लेन में उड़ान भरते हैं वही चुनाव आने पर अपने को दलित-शोषित घोषित करने में ज़रा भी देर नहीं लगाते। भोली जनता इन राजनेताओं के बहकावे में आ जाती है और इनके पक्ष में मतदान कर देती है। ये अपनी सात पुश्तों के लिए ऐशो-आराम के साधन जुटा लेते हैं तथा वोट देने वाली जनता को उसके हाल पर छोड़ देते हैं।
आज कल जो उड़ रहे हैं रोज़ चार्टर प्लेन से
वे चुनावी रैलियों में फिर दलित हो जाएँगे ( पृष्ठ-106)
ग़ज़ल का जन सरोकार पक्ष प्रबल हो। दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी जी की विरासत एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित होती रहे। शायर राहुल शिवाय जी इस बात को लेकर आश्वस्त हैं कि ग़ज़ल अपनी रचनाधर्मिता का पालन अवश्य करेगी। रचनाकार का यह विश्वास एक सुखद संकेत है।
दुष्यंत-अदम पे ही ग़ज़ल ख़त्म न होगी
कहना है अभी और, बहुत और ग़ज़ल में (पृष्ठ-108)
‘रास्ता बनकर रहा’ की ग़ज़लों से स्पष्ट है कि हर वह विषय राहुल जी की ग़ज़लों में विद्यमान है जो हमें समाज में अपने आस-पास दिखाई देता है लेकिन कई बार जनसाधारण के रूप में हमारी नज़र उन पर नहीं जाती परंतु एक संवेदनशील व्यक्ति के रूप में कवि की नज़र उन सबको पकड़ लेती है। सियासत की विद्रूपता, समाज की विसंगतियाँ, नैतिक पतन, मजदूर और किसान की मुश्किलें, ग़ज़ल के भविष्य के प्रति आश्वस्ति आदि सब कुछ नए तेवर और नए भाषिक मुहावरे के साथ राहुल जी की ग़ज़लों में विद्यमान है। निश्चित रूप से राहुल शिवाय की ग़ज़लें दुष्यंत कुमार और अदम गोंडवी की विरासत के रूप में देखी जा सकती हैं। इस पठनीय और संग्रहणीय कृति के प्रणयन के लिए राहुल शिवाय जी को कोटिशः बधाई।
समीक्षक,
डाॅ बिपिन पाण्डेय
रुड़की (हरिद्वार)
उत्तराखंड

105 Views

You may also like these posts

मुझको तुम परियों की रानी लगती हो
मुझको तुम परियों की रानी लगती हो
Dr Archana Gupta
कुछ जो बाकी है
कुछ जो बाकी है
Suman (Aditi Angel 🧚🏻)
जिनकी बातों मे दम हुआ करता है
जिनकी बातों मे दम हुआ करता है
शेखर सिंह
आज़ यूं जो तुम इतने इतरा रहे हो...
आज़ यूं जो तुम इतने इतरा रहे हो...
Keshav kishor Kumar
हे पवन कुमार
हे पवन कुमार
Uttirna Dhar
माई, ओ मेरी माई री
माई, ओ मेरी माई री
gurudeenverma198
आज, तोला चउबीस साल होगे...
आज, तोला चउबीस साल होगे...
TAMANNA BILASPURI
गीत- जिसे ख़ुद से हुआ हो प्रेम...
गीत- जिसे ख़ुद से हुआ हो प्रेम...
आर.एस. 'प्रीतम'
जब मिल जाए सच्चा साथी तो फर्क नही पड़ता क्या है उसकी जाति।
जब मिल जाए सच्चा साथी तो फर्क नही पड़ता क्या है उसकी जाति।
Rj Anand Prajapati
रमेशराज के विरोधरस के दोहे
रमेशराज के विरोधरस के दोहे
कवि रमेशराज
*** शुक्रगुजार हूँ ***
*** शुक्रगुजार हूँ ***
Chunnu Lal Gupta
#ਸੱਚ ਕੱਚ ਵਰਗਾ
#ਸੱਚ ਕੱਚ ਵਰਗਾ
वेदप्रकाश लाम्बा लाम्बा जी
माता-पिता वो नींव है
माता-पिता वो नींव है
Seema gupta,Alwar
दीपावली का आध्यात्मिक और ज्योतिषीय पक्ष
दीपावली का आध्यात्मिक और ज्योतिषीय पक्ष
इंजी. संजय श्रीवास्तव
बचपन की वो बिसरी यादें...!!
बचपन की वो बिसरी यादें...!!
पंकज परिंदा
रहो तुम प्यार से जुड़कर ,
रहो तुम प्यार से जुड़कर ,
DrLakshman Jha Parimal
She never apologized for being a hopeless romantic, and endless dreamer.
She never apologized for being a hopeless romantic, and endless dreamer.
Manisha Manjari
कर्मा
कर्मा
शालिनी राय 'डिम्पल'✍️
हर पीड़ा को सहकर भी लड़के हँसकर रह लेते हैं।
हर पीड़ा को सहकर भी लड़के हँसकर रह लेते हैं।
Abhishek Soni
स्त्री ने कभी जीत चाही ही नही
स्त्री ने कभी जीत चाही ही नही
Aarti sirsat
खुश होना नियति ने छीन लिया,,
खुश होना नियति ने छीन लिया,,
पूर्वार्थ
भीगी पलकें...
भीगी पलकें...
Naushaba Suriya
सियासत में सारे धर्म-संकट बेचारे
सियासत में सारे धर्म-संकट बेचारे "कटप्पाओं" के लिए होते हैं।
*प्रणय*
तेरी एक मुस्कुराहट काफी है,
तेरी एक मुस्कुराहट काफी है,
Kanchan Alok Malu
अदा बोलती है...
अदा बोलती है...
अश्क चिरैयाकोटी
मां की जीवटता ही प्रेरित करती है, देश की सेवा के लिए। जिनकी
मां की जीवटता ही प्रेरित करती है, देश की सेवा के लिए। जिनकी
Sanjay ' शून्य'
क्षणिका. . .
क्षणिका. . .
sushil sarna
People often dwindle in a doubtful question,
People often dwindle in a doubtful question,
Chaahat
हर सिम्त दोस्ती का अरमान नहीं होता ।
हर सिम्त दोस्ती का अरमान नहीं होता ।
Phool gufran
*अज्ञानी की कलम*
*अज्ञानी की कलम*
जूनियर झनक कैलाश अज्ञानी झाँसी
Loading...