*समीक्षकों का चक्कर (हास्य व्यंग्य)*
समीक्षकों का चक्कर (हास्य व्यंग्य)
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मेरे विचार से लेखकों को समीक्षकों के चक्कर में नहीं फॅंसना चाहिए । लेकिन सभी लेखक समीक्षकों के चक्कर में फॅंसते हैं बल्कि कहना चाहिए कि वे समीक्षकों से जुगाड़ तक भिड़ाते हैं कि आप हमारी पुस्तक की समीक्षा कर दीजिए ।
समीक्षकों का हाल यह है कि वह आमतौर पर एक चौथाई पुस्तक पढ़ते हैं और समीक्षा लिख देते हैं । कई बार तो समीक्षा लिखने से पहले ही वह तय कर लेते हैं कि इस पुस्तक की प्रशंसा करनी है अथवा निंदा ! यह भी तय होता है कि कितनी जोरदार प्रशंसा करनी है अथवा कितनी मारक निंदा करनी है । यह सब समीक्षक और लेखक के संबंधों के आधार पर तय होता है । जिस से जान पहचान हो जाती है, उसकी पुस्तक की निंदा करके कोई समीक्षक अपने पैरों पर कुल्हाड़ी थोड़े ही मारेगा !
कई बार तो समीक्षा का कार्य बड़ा जोखिम भरा हो जाता है। सच लिखो तो संबंध टूट जाते हैं और सच न लिखो तो समीक्षक के रूप में स्वयं को आईने में देखने से ही व्यक्ति को खुद से घृणा होने लगेगी । इसलिए किसी परिचित की पुस्तक की समीक्षा करते हुए सत्य पर आधारित दोष बताना टेढ़ी खीर हो जाता है । जब अगला आदमी यह आग्रह करता है कि आप मेरी पुस्तक की समीक्षा कीजिए, तब भले ही कहने-भर को वह यह कह दे कि आप बुराई भी कर सकते हैं लेकिन संसार में एक भी व्यक्ति ऐसा नहीं है जो अपने दोषों को सुनकर प्रसन्न होता है।
कई बार कुछ समीक्षक यह तय करते बैठते हैं कि लेखक की बखिया उधेड़नी है । अत: रचना कितनी भी जोरदार क्यों न हो, वह कोई न कोई दोष उसमें ढूॅंढ ही लेते हैं । अगर दोष नहीं है तो भी यह कह दिया जाता है कि हमारे मतानुसार रचना में प्रवाह बनकर नहीं आ रहा है । अथवा रचना में कुछ और कसावट होनी चाहिए, ऐसा भी कह दिया जाता है । यानी गोलमोल शब्दों में लेखक को हतोत्साहित करने की कोशिश की जाती है ।
पुराने और मॅंजे हुए लेखक समीक्षकों की मक्कारी और गुटबाजी की नस-नस पहचान लेते हैं । उनके ऊपर ऐसी समीक्षा का कोई असर नहीं होता बल्कि उल्टे समीक्षक महोदय अपनी नजरों से गिर जाते हैं । सामान्य पाठक भी समझ जाते हैं कि रचना की निंदा के पीछे कोई स्वार्थ काम कर रहा है । लेकिन जो नया-नया लेखक लेखन के क्षेत्र में आया है, वह इस गुटबाजी से अवश्य हतोत्साहित हो जाता है। कुछ लेखकों की तो समीक्षक ऐसी कड़वी आलोचनाऍं कर देते हैं कि वह यह सोचने पर विवश हो जाते हैं कि हम लिखने के योग्य हैं भी अथवा नहीं ?
मैं दावे के साथ कह सकता हूॅं कि अगर एक ही समीक्षक को एक ही पुस्तक अथवा एक ही रचना कुछ समय बीतने के बाद दोबारा समीक्षा के लिए दी जाए, तब उसकी समीक्षा में जमीन-आसमान का अंतर दिखाई देगा। इसलिए लेखक बंधुओं ! आपका काम लिखना है, लिखते रहिए। अपनी समीक्षा स्वयं करें । ज्यादा समीक्षकों के चक्कर में न पड़ें।
समीक्षा के चक्कर में लेखकों की पुस्तकों की बहुत सी प्रतियॉं बर्बाद होती हैं। पत्र-पत्रिकाओं को एक की बजाए दो प्रतियॉं भेजनी पड़ती हैं। समीक्षा फिर भी नहीं होती। पुरस्कारों का हाल और भी बुरा है। वहॉं चार प्रतियॉं भेजी जाती हैं। उत्तर नदारत होता है। लेखक को झक मारकर अपना मूल्यांकन स्वयं करना पड़ता है । अगर समीक्षकों अथवा मूल्यांकनकर्ताओं के भरोसे कोई लेखक बैठा रहे, तो वह कभी नहीं लिख सकता।
समीक्षकों की समस्याऍं भी अगर देखा जाए तो कम नहीं हैं। आजकल लेखक पुस्तकों की प्रतियॉं नाम-मात्र के लिए छपवाते हैं तथा समीक्षकों को पुस्तक भेजने से पहले सुनिश्चित कर लेते हैं कि आप इसकी समीक्षा लिखें तभी हम आपको पुस्तक भेजेंगे। अनेक बार पुस्तकों के प्रकाशन की योजना इस प्रकार की होती है कि उनकी छपी हुई प्रतियॉं प्रकाशक उपलब्ध नहीं कराते हैं। केवल पीडीएफ उपलब्ध कराया जाता है । ऐसे में थोक के भाव में समीक्षकों को पीडीएफ भेज दी जाती है । अब पीडीएफ को देख-देख कर अपनी ऑंखें खराब करते रहें। मन चाहे तो समीक्षा लिखें, न चाहे तो पीडीएफ सॅंभाल कर रखें।
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लेखक : रवि प्रकाश
बाजार सर्राफा , रामपुर (उत्तर प्रदेश)
मोबाइल 99976 15451