“समावेशी कविता”
समावेशी कविता(पहाड़ी दर्शन)
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समावेशी,
कविता होती,
कभी कहानी रूप,
कभी लेख की छाया,
इसकी नही कोई काया,
कभी कोई ,दुखरा होता है;
किसी गद्य का , टुकड़ा होता;
लूम- लपेट के , लिखते हैं सारे,
भले लगे ना , किसी को भी प्यारे;
नहीं कोई नियम है , ना कोई कानून;
लिखने वाला मस्त रहता , अपनी धुन,
ना कोई सार होता ना होता कोई सारांश,
ना कोई पद्य होता ना ही, कोई पद्य्यांश,
गद्य रूप में ही दिखता,सारे काव्यांश,
पाठक भी इसको पढ़ने से घबराता,
अजीब शीर्षक देख ही डर जाता,
मजबूरी होती , पाठक की भी,
एक कविधर्म , निभाने की;
मित्रकवि , बहलाने की;
ना छंदालंकार होता,
ना व्यवहार होता,
बस होता है,
समावेशी।
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स्वरचित सह मौलिक;
……✍️ पंकज कर्ण,
……….कटिहार।।।
०२/९/२०२१