समाज
जिस समाज में रहते हम अक्सर वहीं गलत होता है,
अच्छे बुरे दो नकाब पहनकर हम क्या यह समाज भी रहता है,
एक तरफ देता लक्ष्मी का दर्जा और पूजता हमें शक्ति के रूप में,
तो कुछ पल के सुकून के लिए गंदगी का शिकार बनाता हैवानियत के रूप में,
चाह होती कि सारे जहां की खुशियां मिले मेरी बेटी को ससुराल में,
पर दूजे की बेटी को बेटी का दर्जा नहीं दे पाते उसके ससुराल में,
खुश रहे मेरे मां बाप हर दम यह ख्वाइश होती हर बेटी के मन में,
पर किसी के मां बाप को दो पल के सुकून के लिए तरसाती वो बहू के रूप में,
बेटी है सुकून और गुरूर मेरा यह राग अलापता यहां हर कोई,
पर पहले बच्चे के रूप में बेटे की ख्वाइश ही रखता हर कोई,
सवाल उठाकर अपनी संस्कृति का एक ओर उसे पिछड़ा बताते हैं,
तो दूजी ओर उसी संस्कृति के खातिर पूरे जमाने में जाने जाते हैं,
निजी शिक्षा संस्थानों को जेबे भरने का जरिया एक ओर बताते हैं,
लेकिन अपने बच्चो को सस्ते सरकारी स्कूलों में भेजने में हिचकिचाते हैं,
आजादी देकर बेटी को आगे बढ़ने की सीना तानकर सब चलते हैं,
पर बांधी है उसके पैरों में कई बेड़ियां यह कभी न बताते हैं,
एक ओर समानता का दर्जा दे स्वाभिमान से जीना सिखाते हैं,
तो वहीं अस्मिता की पवित्रता के लिए एक रंग को आधार बनाते हैं,
और क्या व्याख्या करू मै हमारे ही द्वारा बनाए इस समाज की,
यहां हम दिखाते कुछ और आंख मूंद विश्वास किसी और पर कर जाते हैं।