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2 Jul 2021 · 3 min read

समाज मे समानता की जरूरत है

समाज मे दो ऐसे प्राणी रहते हैं ,जो एक दूसरे के बिना रह भी नही सकते ,और एक दूसरे के बिना बनती भी नही , इनमें आपसी द्वंद होता है कि तुमने मेरी स्वतंत्रता ही भंग कर दी । तुमने मेरा चैन मुझसे छीन ली , तुम धोखेबाज हो अगैरह वगैरह लड़ाइयां होती रहती हैं ।परंतु किसी अच्छे शख्स ने कहा कि ” नफरतों का जहां ढेर होता है प्रेम वही पनपता है ।” आर्थत ये दोनों भी एक दूसरे के बिना नही रह सकते ।
मुद्दा प्रतीक्षा की है जिसका सीमांकन बिंदु आपसी द्वंद ,नफरत ,ईर्ष्या, और एक दूसरे की अलगाव ,तथा स्वतंत्रता का हनन है । क्या प्रतीक्षा सिर्फ स्त्री ही करती हैं , पुरुष तो स्वार्थी हैं यंत्र तंत्र मुँह मरता है । एक पुरुष की कठोरता को सब कलंकित करते हैं , जबकि वही स्त्री की त्याग और ममता का गुणगान करते हैं ,क्या पुरुष स्त्री से कम रोता है , साहेब एक पुरुष ही जानता है कि मैं खुले आँख से रोता हूँ , जबकि वही स्त्री अपने विदाई के वक्त आँख कान नाक तीनो से सुसुक सुसुक कर रोती हैं । क्या परम्परायुक्त और संस्कारी पुरुष की कठोरता गलत है , जबकि एक स्त्री तो घर की लक्ष्मी है ,लक्ष्मी चचंल होती हैं घमंडी और अभिमानी नही , वह तो दयालु वह श्रद्धायुक्त होती हैं जिनमे प्रेम की वर्षा होती है ,न कि नफरतों की ज्वालामुखी , वह तो महासगार से गहरी ,पर्वत से भी ऊंची होती हैं , क्या एक पुरुष को एक हक नही वो अपने घमंडी पत्नी पर लगाम लगाये । लेकिन समाज इसे स्त्री की स्वतंत्रता का हनन मानता है ।
स्त्रियों के गुणगान तो सभी करते हैं ,शायद समाज मे यह एक ऐसे आरक्षित श्रेणी में आती हैं जिनका मुख्य् उद्देश्य ही पिछड़ा पन हो । वाकहि एक तरफ महिलाओ के विकास पर बल दिया जाता है ,लेकिन दूसरे तरफ इनका शोषण भी किया जाता है , जैसे पृथ्वी कहती हो कि साहेब मुझे कार्बनडाई आक्साइड के उत्सर्जन से जितना ज्यादा डर नही जितना इसके अवशोषण न होने से लगता है । अर्थात समाज मे ज्यादा शोषण तो स्त्री की होती हैं , फिर ये पुरुष वर्ग क्यो रोता है । क्या इसमें इसमें स्त्रियों के भांति सयम और दृढ़ता का विनाश हो गया है ।हर बार स्त्री के महत्व को बढ़ावा दे कर समाज क्या पुरुषवादी समाज को अलग नही कर रही ,क्या उनको क्रोध को नही बड़ा रही हैं ।क्या पितृसत्तात्मक समाज इतना कमजोर व दुर्बल है कि अपनी महानता का गुणगान स्त्रियों को डरा धमका कर करता है । क्या वह स्त्रियों को अपने साथ लेकर चलने में अपने महानता को कम आंकता है ।
क्या तब समाज मातृसत्तात्मक समाज का विकसित कर दिया जाए तो ये संभावना खत्म हो जाएगी कि , महिलाओं का विकास होगा ,और उनकी स्वतंत्रता का हनन नही होगा ।
ऐसा कहना एक पल के लिए एक विशेष वर्ग के लिए ठीक है पर नैतिक रुप से यह उचित नही होगा । क्योंकि पुरुष और स्त्री का साथ उसी तरह हैं जैसे चकरा और चकरी का हो , दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे है ।
किसी के स्वतंत्रता का हनन नही होता , बस मन के वहम की दृढ़ता का हनन होता है अर्थात उनकी नकारत्मकता का विकास होता है , अच्छाइयों का इस प्रकार दमन होता है कि बुराइयां शक्तिशाली हो जाती हैं और उसका सीमांकन बिंदु अलगाव ,और नफरत को जन्म देती है ।
स्त्रियों का यह एक आम प्रश्न होता हैं कि पितृसत्तात्मक समाज उन्हें आगे नही बढ़ने देता है । हा ,यह कुछ हद तक सही है पर उन्हें यह नही भूलना चाहिये कि आज आप जो भी ,जितनी आप विकसित हैं वह पितृसत्तात्मक समाज की देन हैं । हमारे यहां एक कहावत है साहेब “आम खाइये ,गुठली मत गिनिये “। अर्थात मिलकर एक दूसरे के विकास पर ध्यान दीजिये , आपके आपसी प्रेम को तोड़ने हेतु समाज में समाज के कीड़े मौजूद है ।

Language: Hindi
Tag: लेख
328 Views
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