समाज को दर्पण दिखाती दो कुण्ड़लियाँ
समाज को दर्पण दिखाती कुण्डलियाँ
ऋण लिया और घी पिया, किया बैंक को भ्रष्ट ।
भोगवाद से देश की, मानवता है तृष्त ॥
मानवता है तृष्त, हम सहभागी इसमें ।
बालक, शैशव, तरुण, पनपता रोग सभी में ॥
खाना-पीना भ्रष्ट, भ्रष्ट तो होगा जीवन ।
बलात्कार, व्यभिचार, बढ़ायेंगे उत्पीड़न ॥
चारवाक तो मर गया, बो कर के विष बीज ।
स्वातंत्र्य के बाद पनपी, रक्त बीज की खीज ॥
रक्त बीज की खीज, दिखाई जिसने कटुता ।
जन मानस के बीच, बढ़ी नित नई विषमता ॥
राम राज्य की सोच, धरातल जाकर डूबी ।
चारवाक किरदार, मंच पर चलें बखूबी ॥