समाज का निर्माण
एक अकेला इंसान था
भूख प्यास से बेहाल था
ना प्रेम था ना एहसास
दारुण वृक्ष के समान था ।
एक एक मिलते गये
प्रेम एहसाह बनने लगे
रिस्तों की श्रंखलाएं बनी
और समाज का निर्माण हुआ ।
योग्यताऐं निखर रहीं थी
कार्य निर्धारण हो रहा
हर कोई चाहता था
उद्दोग में आहुति दे रहा था ।
प्रेम सम्बंध बढ़ रहे थे
माँ-बाप से आगे निकल रहे थे
हर कोई जिम्मेदार हो रहा था
समाज का निर्माण हो रहा था ।
कुछ विचारशील थे
कुछ शक्तिमान थे
कुछ कार्यकुशल थे
कुछ सेवा में सहनशील थे ।
कुछ आलसी थे
कुछ लालची थे
कुछ निकृष्ट थे
ये राजनीति से घनिष्ठ थे ।
फिर एकसाथ सब आगे बड़े
सुख दुःख साथ सहते चले
कुछ आगे निकल गए
कुछ वहीँ वस गये ।
समाज से प्रदेश बने
प्रदेश से बने देश
और बना संसार
राजनीति ने मचा दिया इसमें हाहाकार ।