समाज का आदर्श
पत्थरों में हीरा खोजते खोजते कोहिनूर की कीमत भूल बैठे हैं,
जहां की कीमत क्या समझेंगे हम जब अपनों का ही मोल भूल बैठे हैं,
किसी बेजुबान के मारे जाने पर जो करते हैं इंसानियत की बातें,
उन्हें क्या पता हम तो इंसा और दानव का फर्क ही भूल बैठे हैं,
जिन खुशियों के लिए आए हवेलियां छोड़ शहर की तंग गलियों में,
आज उन्हीं गलियों में हम अपनी आजादी संग सब भूल बैठे हैं,
करते हैं जो शान से सिर्फ बातें देश पर जान न्योछावर की,
उन्हीं के साए में आज हम अंदर छुपी अपनी देश भक्ति को भूल बैठे हैं,
कल तक जिन शत्रुओं को खदेड़ कर बाहर करने की कर रहे थे कोशिश,
आज उसको भुला ऊंच नीच और चुनाव का बिगुल बजाने को तैयार बैठे हैं,
देख नहीं सकता जो समाज नारी अस्तित्व की ऊंची उड़ान को,
आज वही उसकी एक चूक पर उसे जहर का प्याला पिलाने को तैयार बैठे हैं,
बात करते सब सीता जैसे चरित्र और यशोधरा जैसे संयम की,
पर खुद के अंदर रावण और कौरवों को छिपाए बैठे हैं,
नारा देते जो बाल मजदूरी के खिलाफ संसद की दीवारों में,
वो खुद बड़े पर्दे पर बाल कलाकारों को प्रोत्साहित करने में जुटे हुए हैं,
तुम क्या जानो युगों से चल रहे समाज में इस खेल के बारे में,
यहां सामने जो जिसके खिलाफ बोलता पीठ पीछे उन्हीं की तारीफों के कसीदे रोज़ पढ़ते हैं।