समाज का आइना
समाज का आइना
चलो, मैं तुम्हें एक सच बताता हूँ, जो कोई नहीं दिखाएगा,
समाज का वो आईना दिखाता हूँ।
आजादी की नाकामयाबी बताता हूँ, जात-पात में लिपटे समाज की बुनियाद बताता हूँ।
दूसरों की नारियों पर गिरती लार दिखाता हूँ, लेकिन खुद के घर से आती नारी की चीखें सुनाता हूँ।
विवाह के नाम पर टूटते प्रेम-रिश्ते गिनवाता हूँ, किसी अनजान को सौंपी इज्जत की राख दिखाता हूँ।
शिक्षा के बोझ तले दबे गरीब दिखाता हूँ, अमीरों के स्कूल में होता जातिवाद दिखाता हूँ।
दूसरों की जाति से घृणा दिखाता हूँ, और खुद से छोटी जाति को पहुँचाए चोट सहलाता हूँ।
कभी न खत्म होने वाली कविता को विराम लगाता हूँ, आओ, तुम्हें समाज की सच्चाई बताता हूँ।