समस्या साधारण,फिर भी समाधान नहीं,
एक आम समस्या,
जो कि साधारण नहीं है,
इसलिए समाधान भी नहीं है,
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एक समय कभी ऐसा था,
जब कभी,
वीरान राहें हुआ करती,
जो कि डराती थी,
अब कुछ ऐसा होने लगा,
भीड़ भी डराने लगी,
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ये सब कैसे हुआ ?
बढ़ रही लापरवाही है,
पैदल चाल भी डराने लगी,
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मुश्किलें बढ़ी.. अब पैदल चलने में,
पगडण्डी पड़ी थी…जो पैदल चलने में,
बन गए घर-घर स्लोप मोटरकार चढाने में,
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हररोज़ सुबह घर की धुलाई कुछ ऐसे होती,
जस् आदमी नहीं ..अंदर कोई ढ़ोर है बंधते,
आंगन को ढ़ोर के ठाण सम धोया जाता,
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दिनभर जलती है रोशनी(गलियारों में)
शाम को फिर जलानी पड़ेगी,
इसलिए नहीं ..बुझती,
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गर हो घर सड़क किनारे,
हिस्से पड़ जाती है चांदी,
अब कोई नहीं….पड़ोसी सामने,
सब कष्ट-कलह ….मिट जाती,
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घर का पानी…छोडेंगे खुल़ी सड़क पर,
खड़ी होगी …मोटर-कार,
रेहड़ी लगेगी …साथ में,
सरकार तो अब आएगी नहीं ..पास में,
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दुनिया वालों करो रहम,
खुद ही दूर करो…अपना बहम,
वरन ये मत कहना,
प्रशासन आता नहीं किसी काम ,
वो तो है बस नाकाम,
खुद से नहीं होने वाला..कोई समाधान,
बैठ आपस में कोई विचार करो,
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एक आम समस्या,
जो कि साधारण नहीं है,
इसलिए समाधान नहीं है,
आपसी समझ को ही माने समाधान,
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डॉ महेंद्र सिंह खालेटिया