समर्पण
मृदु मंद मुस्काँ अधरों की
रक्तवर्णी चेहरे को उष्णता देती
कोरों के झरोखों से झाँक
मौन आत्मसमर्पण कर कहती
दूर तुम इतने हो मुझसे प्रिय
जितना दूर यह गगन जमीं से
पर गगन को तो देख लेती हूँ
क्यों न देते तुम अर्पण प्रिय
बदली बन मैं घनघोर मेघ की
अंग – अंग तेरा भिगों दूँ प्रिय
बिजुली बन बाबले बादल की
समर्पण को आतुर रहूँ मैं प्रिय
मिलन तेरा मेरा इक बहाना है
आगे की पीढ़ी को सीखाना है
गर चूक करो संस्तृति न बढ़ेगी
आत्मसमर्पण की कथा न बढ़ेगी
आओ प्रिय उत्सर्ग तुम अपना दो
लेने देने से ही ये जीवन चलता है
आत्मतर्पण की बेदी पर निखरोगे
मुझमें अपने को हर पल तुम ढूढ़ोगे
डॉ मधु त्रिवेदी