समर्पण
है समर्पित भाव तो क्या, कर दूं समर्पण पाप को।
सर झुकाकर ग्रहण कर लूं, दुष्ट के हर संताप को।।
मर भी जाऊं गर अकेला, इन पापियों के झुंड में।
बनके लौ हूंगा प्रकाशित, इस पुण्य रूपी कुंड में।।
रह गई ना चाह सुख की, दुख हमारा क्या करेगा।
है जिंदगी से प्रेम इतना, मौत तो तिल तिल मरेगा।।
हैं समर्पित सत्य को यदि, झूठ का डर क्यों व कैसा।
हो सदा निर्भीक ‘संजय’, होने दो पथ हो भी जैसा।।
जय हिंद