समय
मैं…………..
वक्त को दरकिनार कर चलता रहा,
अपनी जवानी की उमंग में वक्त को मसलता रहा।
नहीं…. नहीं आज नहीं… कल पर छोड़ता रहा,
वक्त के हर नियमों को लापरवाही से तोड़ता रहा।
मैं………
वक्त को अपने साथ कभी रख ही न पाया,
कभी भी वक्त के साथ कदम रख ही न पाया।
जिंदगी रंगरेलियों में यूँ ही गुजरती रही,
और वर्तमान की मौज में भविष्य की तस्वीर बिगड़ती रही।
मैं……….
मगरूर होकर जिंदगी की हकीकत को कुचलता रहा,
खामख्वाह के रूआब में बंदर की तरह उछलता रहा।
मगर अफसोस कि जब मैं होश में आया,
वक्त को अपने से बहुत दूर कोस में पाया।
मगर जब जमीन की हकीकत से वाबस्ता हुआ,
तो खुद को बेसहारा और किसी से न राब्ता हुआ।
सिमट गई थी जिंदगी मेरी एक कोने में,
कोई फर्क नहीं पड़ता था किसी को मेरे होने न होने में।
हर एक मुझसे काफी आगे निकल चुका था,
हाय! जमाना वाकई बहुत बदल चुका था।
लेकिन अब पछताने के सिवा मेरे पास कुछ न था,
वक्त की मार से उजडा़ मेरा गुलिस्तां खंडहर से कम न था।
अब खड़ा इक छोर पर बस यही गुनगुनाता हूँ,
मत करना बेकद्री वक्त की यही समझाता हूँ।
सब छोड़ जाएँगे साथ मगर वक्त काम आएगा,
गर जो तू वक्त पर वक्त की कीमत जान पाएगा।
सोनू हंस