सत्तर की दहलीज पर!
ये उस समय की बात है,
जब पहुंचा जवानी की दहलीज,
लहू में ऊर्जा थी भरपूर,
और कुछ कर गुजरने का जज्बा भी प्रचूर!
क्या मजाल ,
जो किसी के आगे,
झुकना हो मंजूर,
दिखाई जो किसी ने आंखें,
तो तनी हुई भवों से,
जता दिया गुरुर,!
बात बात पर अड जाना,
लड भिड कर बात मनाना,
सच झूठ का न कोई बहाना,
बस अपने तक था सीमित जमाना!
पर समय कभी कोई ठहरा ,
जो हम पर आकर रहता ठहरा,
उसे तो बस चलना होता,
वह रहता चलता, चलता रहता,
तो मै कैसे ठहरा रहता,
चलना तो मुझको भी पड रहा,
चाहे अनचाहे चलना पड़ता!
बालपन से युवा अवस्था,
घर गृहस्थी का पकड़ा रस्ता,
पति पत्नी का बना जो रिस्ता,
आकार ले रहा था एक नया ही रिस्ता!
पति से पिता का हुआ सफर शुरु,
किलकारियों की गूंज शुरु,
आवश्यकताओं की मांग शुरु,
काम काज की जंग शुरु,
खपने खपाने का अभियान शुरु!
चल रही थी समय की अपनी चाल,
हम चल रहे थे मिलाके कदमताल,
बदलते रहे हमारे हाल,
नयी समस्याएं नये सवाल,
अब पिचकने लगे थे अपने गाल,
आंखों की चमक और भुजाओं का बल,
सिकुडने लगा था हर पल!
अब आ रहा समझ में,
मैं तो निर्बल ही था,
समय था बलवान,
मुझ जैसे होंगे कितने ही नादान
जो समझ बैठे होंगे,
उन्ही से है सारा जहांन,
वो भी साबित हो जाएंगे,
थे वो कितने अनजान !
घर गृहस्थी का उल्लास हो,
या हो दायित्व का बोध,
शरीर की संरचना में तो,
निरंतर परिवर्तन रहता है,
तन कर चलने के दौर से लेकर,
झुककर चलने को हुए मजबूर
सब समय के चक्र के साथ,
ये चलता रहा अपने आप,
हम कब शून्य से प्रारंभ हुए,
और पहुँच गये सत्तर की दहलीज के पास,
अब ना तो कोई उमंग विशेष,
ना कोई अभिलाषा है शेष,
बस जी रहे हैं,
इस उम्मीद पर,
कब ले चलेंगे यम दूत,
हमें अपने देश!!