समय चक्र
यूं तो समय चक्र अपनी गति से निरंतर चलता रहता है। लेकिन फिर भी हमने कई लोगों को कहते सुना है कि ”अरे समय कब बीत गया पता ही नहीं चला !!” या फिर “यार क्या करें समय कटता ही नहीं !!”, ”मानो समय रुक गया हो !!”…इत्यादि इत्यादि!! किंतु सत्य तो यह है कि समय की गति कोई जानता ही नहीं। हां पर समय भूत, वर्तमान और भविष्य का साक्षी रहने वाला है इसमें कोई संदेह नहीं।
सुबह का वक्त है और गांव के ज्यादातर बुजुर्ग और शिक्षित बेरोजगारों की भीड़ उमड़ आती है ईश्वरीदत्त की चाय की दुकान पर। आमदनी उतनी नहीं है चाय की दुकान से , लेकिन ईश्वरीदत्त ने थोड़ा खींच तान कर अख़बार का अतिरिक्त खर्चा उठा रखा है। कुछ लोग तो इसी अख़बार की खातिर ही दो तीन चाय पी जाया करते हैं। बेरोजगार युवक जॉब्स वाले कॉलम खंगाल लेते हैं चाय की चुस्कियों के साथ साथ। इस भीड़ में कुछ लोग कुल्हड़ की चाय के साथ बीड़ी सुलगाते नजर आएंगे तो रामभरोसे काका किसी भी अतरंगे विषय पर अपनी समझ तक सीमित ज्ञान का प्रदर्शन करते मिलेंगे। जिंदगी को भरपूर जिया है काका ने। काका और हंसी ठहाकों के बीच सुबह का ये वक्त कब बीत जाता है मानो पता ही नहीं चलता।
सभी के अपने अपने काम पर चले जाने के बाद ईश्वरीदत्त के पास शाम के इंतजार के सिवा कुछ भी नहीं रहता। कोई एक आद भूला भटका दुकान पर आ भी जाता है पर सुबह जैसी चहल पहल नहीं रहती दोपहर के वक्त। ईश्वरीदत्त को शाम की भीड़ का बेसब्री से इंतजार रहता है। चार पैसे तो मिलते ही हैं लेकिन जो माहौल बन जाता है उसका कोई जवाब नहीं। गांव वालों की दिनचर्या का हिस्सा बन चुकी है ईश्वरीदत्त की चाय की दुकान। ईश्वरीदत्त से कोई पूछ ले कि कैसा चल रहा है भाई, तब उसका एक ही जवाब होता सुबह शाम का तो ठीक है भैया लेकिन दोपहर का समय तो कटता ही नहीं।
शाम की चाय की तैयारी में जुट जाता है ईश्वरीदत्त। पुरानी लकड़ी के फट्टों को ईंटों से टिकाकर लोगों के बैठने की व्यवस्था कर रखी है ईश्वरीदत्त ने। उन्ही फट्टों पर थोड़ा फटका मारकर,वो पानी के छीटों से आस पास की मिट्टी को थोड़ा बिठा देता है। ये ईश्वरीदत्त का रोज का काम है। सूरज ढलने को आया लेकिन आज कोई भी दुकान की तरफ आता नज़र नहीं आ रहा था ईश्वरीदत्त को। शाम पहले कभी इतनी खामोश नहीं देखी थी उसने। दुकान बढ़ाकर ईश्वरीदत्त गांव में अपनी खोली की तरफ जाने लगा। तभी रास्ते में किसी गांव वाले ने उसको बताया कि रामभरोसे काका आज दोपहर में इस दुनिया से चल बसे। ईश्वरीदत्त सुन्न हो गया था। काका से उसकी मुलाकात आज सुबह की चाय पर हुई थी। ईश्वरीदत्त के लिए मानो समय रुक गया था। वह निशब्द था!! मौन था!!
किंतु समय चक्र अभी भी अपनी गति से निरंतर चल रहा था। समय चक्र कहां रुकता है भला!!
– विवेक जोशी ”जोश”