दरिया की तह में ठिकाना चाहती है - संदीप ठाकुर
*श्री उमाकांत गुप्त (कुंडलिया)*
जिंदगी है कि जीने का सुरूर आया ही नहीं
महफ़िल मे किसी ने नाम लिया वर्ल्ड कप का,
टूटा दर्पण नित दिवस अब देखती हूँ मैं।
दीप जगमगा रहे थे दिवाली के
त्यागकर अपने भ्रम ये सारे
एक छोटी सी मुस्कान के साथ आगे कदम बढाते है
राह भी हैं खुली जाना चाहो अगर।
हालात ही है जो चुप करा देते हैं लोगों को
बढ़े चलो तुम हिम्मत करके, मत देना तुम पथ को छोड़ l
Shyamsingh Lodhi Rajput "Tejpuriya"
प्रकृति के आगे विज्ञान फेल
ऐ./सी.राकेश देवडे़ बिरसावादी