हंसते ज़ख्म
जिन बातों से दुःख होता था,
अब वे ही लगती सुखकर हैं।
जिसने दिल को ज़ख्म दिए थे,
अब वे ही मुझको हितकर हैं॥
बचपन में शिक्षा पाने को,
हम विद्यालय जाते थे।
शिक्षा और संस्कारों के संग,
कभी दण्ड भी पाते थे॥
जिनसे लड़ जाते थे खेल में,
सहपाठी वे सहचर हैं।
जिसने दिल को ज़ख्म दिए थे,
अब वे ही मुझको हितकर हैं॥१॥
मात पिता की सीख सदा ही,
हमको बंधन लगती थी।
यौवन में सम वय बालाएं,
मुस्काकर ही ठगती थीं॥
जिसने दिल को तोड़ दिया था,
वह भी मिलती हंसकर हैं।
जिसने दिल को ज़ख्म दिए थे,
अब वे ही मुझको हितकर हैं॥२॥
समय बदलता सोच सभी की,
जीवन का अनुभव कहता है।
उससे भी सुख मिलता हमको,
जो केवल दुःखकर रहता है॥
‘अंकुर’ हंसते ज़ख्म कह रहे,
अवसर पा हम सुखकर हैं।
जिसने दिल को ज़ख्म दिए थे,
अब वे ही मुझको हितकर हैं॥३॥
– ✍️ निरंजन कुमार तिलक ‘अंकुर’
छतरपुर मध्यप्रदेश