समता-मसीहा
कलम ने जिसकी सम्पूर्ण जग में,
बिखेर दिए हैं जलवे अपने |
करो नमन उसको देशवासी,
जिसकी बदौलत समता यहाँ है ||1||
तुम्हारी नियत में खोट लगता,
इसलिए समता मिटा रहे हो|
माँओं की ममता जला-जलाकर,
लालों में नफ़रत जगा रहे हो||2||
करो जतन लाखों चाहे मिलकर,
होंगे सफल न कु-कारनामे|
देश की जनता समझ गई है,
घृणा की पाटी पढ़ा रहे हो||3||
मिली जो सत्ता तुम्हें बामुश्किल,
खून कलम क्योंकर कर रहे हो|
‘मयंक’ स्वर्णिम स्वच्छ छबि को,
धूमिल-धूसिर क्यों कर रहे हो||4||
✍के.आर. परमाल “मयंक”