समझदार?
समझदार?
बचपन जिन भाई-बहनों के साथ बिताते हैं।साथ-2 खेलते हैं, खाते-पीते हैं। संग-2 पढ़ते हैं, रहते हैं। बड़े होकर वो सब भूल जाते हैं। बचपन का प्यार भूल जाते हैं। बचपन का साथ-2 हँसना-मुस्कुराना भूल जाते हैं क्योंकि बड़े हो जाते हैं, समझदार हो जाते हैं। समझदार बन जाते हैं,लालच आ जाता है मन में। बचपन में जहाँ भाई-बहन हर चीज प्यार से आपस में बांट लेते थे वहीं बड़े होकर हर चीज सिर्फ अपनी बनाने के लिए लड़ना-झगड़ना शुरू कर देते हैं। पैसे, जमीन-जायदात,धन के लिए एक-दूसरे को दुश्मन समझने लगते हैं। लालच को समझदारी और रिश्तों को बेवकूफ़ी मानने लगते हैं। भाई, बहनों को किसी चीज का हकदार नहीं समझते। भाई, भाई का शत्रु बन जाता है। नकारने लगते हैं बचपन के हर प्यार-भरे पल को, प्यार-दुलार भरे हर एक अहसास को।
समझदारी आ जाती है और रिश्तें चले जाते हैं क्योंकि लालच को ही समझदारी समझने लगते हैं। दूसरों का हक मारने को ही सही जानने लगते हैं। क्यों नहीं सोचते उन रिश्तों के बारे में जो अनमोल होते हैं। उन भावनाओं पर,उन सम्बन्धों पर ध्यान क्यों नहीं जाता जो सच्चे और भगवान द्वारा प्रदान किए जाते हैं। क्यों गैरजरूरी हो जाते हैं जज़्बात। क्यों नहीं समझते कि समझदार होना रिश्तें निभाना होता है,प्यार बनाए रखना होता है, लालच करना नहीं। समझदारी एक-दूसरे का दुःख में साथ देना,दर्द न देना होती है। ये कैसी समझदारी है जो लालच से पैदा होती है, लालच-लोभ से बनती,पलती है। इस तरह के लोग कैसे समझदार होते हैं?
प्रियाprincess पवाँर
स्वरचित,मौलिक
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