समकालीन कविता
माँ
तुम एक छतरी हो
नीली छतरी
जिसमें क्षितिज ही नहीं
क्षितिज के उस पार का भी
एक-एक कोना
यहाँ तक कि
तल-अतल-चराचर
एवं ब्रह्माण्ड की सभी कलायें
बिम्ब-प्रतिबिम्ब के एक-एक कण
समाहित हैं
तुम एक चित्र हो
अद्भुत चित्र
विचित्र चित्र
अलौकिक चित्र
जिसमें त्रिआयामी ही नहीं
बहुआयामी चित्र
और अनेकानेक रेखाचित्र
रेखित हैं
तुम एक दर्शन हो
जो अब तक जाना न जा सका
और न जाना जायेगा
तुम एक दूरदर्शन हो
ऐसा दूरदर्शन
जो न सुना गया
न देखा गया
और नहीं सुना या देखा जायेगा
तुम्हारे पाट
समुद्र से भी
असीमित हैं
यही नहीं
तुम शिक्षा और आचारसंहिता की
आकाशवाणी हो
माँ !
मेरी माँ !!
माँ !!!
शिवानन्द सिंह “सहयोगी”
मेरठ