सब मिटे हृदय के ताप हरे
सब मिटे हृदय के ताप हरे! यह विषमय विस्मय-पाप हरे!
सब वेद – वाङ्गमय , तंत्र – मंत्र,
जादू- टोने होने न होने से क्या?
अमोल क्षणिक-माणिक,मुद्रा,मोती
पाने से अथवा खोने से क्या?
जब जीता है संताप हरे।सब मिटे हृदय के ताप हरे!
जो इस लोक को जीते हैं उनका
नर्क – स्वर्ग मरीचिका भूतल है।
अन्वेषण-रत हैं पनडुब्बियाँ,शेष
तर्कहीन अगाध नहीं जल है।
यह निरा नहीं प्रलाप हरे। सब मिटे हृदय के ताप हरे!
नहीं तरूंगा वैतरणी में
उस पार रहो तुम;इसी पार रहूँ मैं!
बल दो इतना कि पथ के सारे
आतप-अंधड़ शत-शत बार सहूँ मैं।
रहे कर्मयोग – प्रताप हरे। सब मिटे हृदय के ताप हरे!
-सत्यम प्रकाश ‘ऋतुपर्ण’