सब खड़े सुब्ह ओ शाम हम तो नहीं
ग़ज़ल
सब खड़े सुब्ह-ओ-शाम हम तो नहीं
उनके दर के ग़ुलाम हम तो नहीं
आप क्यों ला-क़लाम हैं हमसे
आपसे हम-क़लाम हम तो नहीं
मुँह में हम भी ज़बान रखते हैं
आपसे बे-लगाम हम तो नहीं
मयकदे में ज़रूर बैठे हैं
पर तलबगार-ए-जाम हम तो नहीं
दाद-ओ-तहसीन मिल सके हमको
ऐसे भी ख़ुश-क़लाम हम तो नहीं
ओक से मय पियें तेरी साक़ी
इतने भी तिश्ना-काम हम तो नहीं
क़ाबिले-एहतराम आप ही है
क़ाबिले-एहतराम हम तो नहीं
हम कोई ख़ास तो नहीं हैं ‘अनीस’
लेकिन इतने भी आम हम तो नहीं
– अनीस शाह ‘अनीस’