सब्र की इंतहा
हैवानियत की हदें पार कर चूका है इंसान,
ऐ खुदा! तू मुझे बता आखिर तू है कहाँ ?
मौत के साये में हुई हर जीस्त खौफज़दा,
तुम देखो तो सही धर्म और ईमान है कहाँ?
धर्म ईमान तो गुम हो गया।गुनाहों के अंधेरों में,
ज़मीर है बेबस ,झूठ का बोलबाला है बहुत यहाँ।
खून के रिश्ते या दिलों के रिश्ते यहां क्या हैं ?,
खुदपरस्ती ही दिखती है यहां प्यार है कहाँ?
अपनी ही हवाएं हैं शोला बरसाए आसमाँ से ,
दरिया-सागर में पानी नहीं, लहू बह रहा यहाँ ।
हम परेशां हाल करते हैं इंतज़ार कयामत का,
हमें है देखना तेरी सब्र की इन्तेहा है कहाँ !