सहमें लोग !
लोग !
सहमें हुए हैं आज !
घरों में ,
सहसा सशंकित अनायास ,
भयाक्रांत !
तत्क्षण आभास
अनिश्चित सिहरन काल मृत्यु चक्र का ,
यह सोचकर कि कहीं बरस रहा है आग का गोला !
कहीं नभ से गिरते परमाणुओं की आहट तो नहीं !
पर किंचित् नहीं कहीं …
वे दिन चले गए
वैश्विक होड़ में जैविक युद्ध हो चुकी समाहित ,
हो चुका आरम्भ …
मानव पर मानव का प्रहार !
वर्षों से
लालायित
असंख्य सभ्यता लीलने को !
आज !!!
हार रही मानवता क्षण-क्षण ,
अस्तित्व के पड़ चुके हैं लाले ;
संवहित , अध्यारोपित एक वायरस से !
,✍? आलोक पाण्डेय