सबब-ए-जिंदगी
मेरी तन्हाइयो का सबब बन रही है जिंदगी,
कुछ ख़बर नहीं क्या बन रही है जिंदगी,
बदहाली है न मायूसी है कोई,
फिर भी बोझ सी बन रही है जिंदगी,
ये ख़ामोशी का आलम कब टूटेगा,
शमशान सी सूनी बन रही है जिंदगी,
इसको भी न जाने कब जवानी आएगी,
मुझे तो बचपन सी लग रही है जिंदगी,
“साहिब” सब दिल ओ दिमाग की उलझन है,
देखो दर्द से और कमाल बन रही है जिंदगी,