Sahityapedia
Login Create Account
Home
Search
Dashboard
Notifications
Settings
11 Jan 2023 · 24 min read

सबको नित उलझाये रहता।।

सबको नित उलझाये रहता।।

बहुत बकबकी प्रश्न स्वयं है।
स्वयं मनाता जश्न स्वयं है।
है महत्वहीन वह पागल।
फिर भी लड़ता सबसे दंगल।।

सबसे वह पटकाया जाता।
फिर भी हाथ मिलाये जाता।
है लतिहर इंसान बहुत वह।
गोबर की पहचान बहुत वह।।

28- अपने में ही सिमट मुसाफिर
(चौपाई)

अपने में ही सिमट मुसाफिर।
होना मत तुम कभी उजागिर।।
सिमट-सिमट कर खोना सीखो।
अपने में ही सोना सीखो।।

खो जाने में अच्छा जीवन।
आत्मवादी सात्विक उपवन।।
खो कर देखो सुखद तमाशा।
रहो नहीं अब भूखा-प्यासा।।

भूखी बाहर की जगती है।
रूखी-सुखी यह धरती है।
अंतस्थल को हरा-भरा कर।
अंतर्मन को नित निर्मल कर।।

बाहर से तुम कभी न लेना।
बाहर को बस भिक्षा देना।।
आत्मतोष का जय जयकारा।
अंतस ही अति सुंदर प्यारा।।

29- अमेरिका का बाप (दोहे)

अमेरिका का बाप है, मम हरिहरपुर ग्राम।
सब कुछ भरा पड़ा यहाँ, यह अति प्यारा धाम।।

पावन चिंतन है यहाँ, हरियाली चहुँ ओर।
आपस में मिल-जुल सभी, नाच रहे जिमि मोर।।

हरिहरपुरी प्रसन्न अति, रह कर अपने गाँव।
नहिं विदेश की चाह कुछ,सुखद गाँव की छाँव।।

हरिहरपुर के दृश्य पर, मंत्रमुग्ध ऋतुराज।
बारह माह बसन्त है, सर्वकाल मधु-राज।।

रामबली हरिहरपुरी, का अति सुंदर देश।
हरिहरपुर विख्यात है, चारों ओर विशेष।।

मन में हरिहरपुर बसा, मन में शंकर-राम।
मन में ही काशी बसी, मन में पावन धाम।।

श्री सरस्वती धाम प्रिय,श्री साईं का धाम।
रामबली जपते सतत, राम राम का नाम।।

रामबली का धाम यह,हरिहरपुर खुशहाल।
रचना होती रात-दिन,छोड़ सकल जंजाल।।

मस्ती में हैं घूमते, रामबली अति मस्त।
इनकी मस्ती देख कर, रिद्धि-सिद्धियाँ पस्त।।

इनकी इच्छापूर्ति को, पूरी करते राम।
रामबली को मिल गया, अति पावन श्री धाम।।

हरिहरपुर श्रीधाम ही, रामबली का गेह।
कविताओं से अहर्निश, करते रहते स्नेह।।

30- चला है मुसाफिर अकेला सफर में

चला है मुसाफिर अकेला सफर में।
नहीं जूते पैरों में काँटे डगर में।।
चुभते हैं काँटे बहुत जख्म देते।
जीवन के सुख-दुःख को सहने को कहते।।
यही जिंदगी का तकाजा है मित्रों!
चलो झेलते सब सजा मेरे मित्रों!!
आया जगत में सब सहने की खातिर।
पापों के तरु-फल को चखने की खातिर।।
उगाया हुआ होता यदि सत्कर्म-वट।
बदलता न जीवन कभी अपना करवट।।
किस्मत का मारा भटकता है मानव।
उठता है गिरता लुढ़कता है मानव।।
रो-रो के कहता है अपनी कहानी।
चिल्लाता सिसकता है अपनी जुबानी।।
सुनता है कोई नहीं साथ देता।
सुनकर जगत अपना मुँह फेर लेता।।
कहो मत सहो बस यही सोच चलना।
मुसाफिर बने हो तो सब कष्ट सहना।।
मुसाफिर का जीवन बहुत है दुखान्तक।
हँस कर सहो कष्ट बन जा सुखान्तक।।

31- क्रूर ग्रहों को अब ललकारो
(चौपाई)

क्रूर ग्रहों को अब ललकारो।
विषय-भोग को नित फटकारों।।
पास इन्हें मत आने देना।
यदि आयें तो ठोकर देना।।

नीच-निकटता अति दुःखदायी।
क्रूर वृत्ति की करो पिटायी।।
इन कुत्तों को मत आने दो।
सड़ियल मन को मर जाने दो।।

धर्म विरोधी क्रूर वृत्ति है।
सत्य विरोधी कुटिल वृत्ति है।।
जो इनको है सदा मारता।
वह द्वापर का कृष्ण कहाता।।

अधम वृत्ति में दानवता है।
पुण्य कृत्य में मानवता है।।
शुभ कर्मों से ग्रह भागेंगे।
नंगा नाच नहीं नाचेंगे।।

32- जब मानव की कीमत बढ़ती
(चौपाई)

जब मानव की कीमत बढ़ती।
मानवता की धज्जी उड़ती।।
मानव दानव बनने लगता।
दंभ भाव नित मन में बढ़ता।।

संस्कारों में विचलन आता।
असहजता का प्रचलन भाता।।
तन-मन में ऐंठन आती है।
सत-असत्य में ठन जाती है।।

द्वापर रोता कलियुग हँसता।
सत्युग नित भूतल में रहता।।
रावण दौड़ा-दौड़ा चलता।
अहंकार पर सदा मचलता।।

राघव को ललकार रहा है।
साधु-संत को मार रहा है।।
दुर्जन सज्जन बनने लगते।
सज्जन पीछे हटने लगते।।

मानव की कीमत मानव हो।
मानवता पर वह कायम हो।।
मानवता यदि नष्ट हो गयी।
मानव संपति भ्रष्ट हो गयी।।

जो करता मानव की पूजा।
उससे बड़ा नहीं है दूजा।।
मानवता को मत मरने दो।
सुंदर को जिंदा रहने दो।।

33- जो कुत्तों को विष देता है
(चौपाई)

जो कुत्तों को विष देता है।
रौरव नरक वही गिरता है।।
अधम नीच अति क्रूर अपावन।
कुत्तों का हत्यारा दुर्जन।।

कुत्ता -मारक घोर दरिंदा।
खुले गगन में चील्ह परिंदा।।
जिसके दिल में दया नहीं है।
पतित दुष्ट अघ कीट वही है।।

करुणा भाव नहीं जिसके उर।
है शमशान घाट अंतःपुर।।
जीवों के प्रति स्नेह जहाँ पर।
देवों का है गेह वहाँ पर।।

पापी मन में प्रेतवास है।
लिये घूमता नागफाँस है।।
हत्यारा चाण्डाल अपाहिज।
करता रहता सबको आजिज।।

34- कष्ट हरो हे माँ सरस्वती
(चौपाई)

ज्ञानवती अति सहज दयालू।
दीन-हीन पर सदा क्रिपालू।।
रक्षक संरक्षक मनमोहक।
ज्ञान निधान विश्व संबोधक।।

कष्ट दूर कर देती उसका।
तेरे चरणों में मन जिसका।।
क्षमाशील अति कोमल भावन।
मृदुल प्रेममय दिव्य स्वभावन।।

अतिशय सुमुखि सरल जिमि सीता।
नीतिवती सद्बुद्धि पुनिता।।
वरदानी अक्षय अति न्यारी।
सकल जीव की प्रिय महतारी।।

कष्ट हरो हे माँ सरस्वती।
बैठ हंस पर आ उर-धरती।।
पुस्तक दे कर दुःख हर माता।
स्वस्थ करो हे वीणाज्ञाता।।

35- लिखता हूँ (चौपाई)

अपनी इच्छा से लिखता हूँ।
अपनी इच्छा को लिखता हूँ।।
इच्छा में सद्भाव बसा है।
सद्भावों में प्रेम-रसा है।।

मन मंदिर में बैठे लिखता।
मंदिर में प्रतिमा को रचता।।
प्रतिमा में कविता दिखती है।
कविता से कविता बनती है।।

कविता भावों की दुनिया है।
भावों में शिव मधु मनिया है।।
मनिया घूम रही शिव द्वारे।
जग को कहती आओ प्यारे।।

36- परम सशक्त शक्तिसम्पन्ना
(चौपाई)

परम सशक्त शक्तिसम्पन्ना।
ब्रह्माणी मृदु ज्ञान अभिन्ना।।
अति भावुक कोमल प्रिय वचना।
परम सुशांत दिव्य संरचना।।

सहज सुशील सरल शिव समता।
बुद्धि अथाह विवेक सरसता।।
महा भवानी नारी नरमय।
प्रिया शिवा शुभ ध्यान धर्ममय।।

नारी से ही सकल सृष्टि है।
नारी अमृत मेघ वृष्टि है।।
नारी से ही नर आता है।
नारी से शोभा पाता है।।

निर्मल विमल धवल सुखवाचक।
सकल भुवन की प्रिय संचालक।।
महा प्राणमय परम प्रणम्या।
अति कमनीय विनम्र सुमन्या।।

विद्या वारिधि गुणनिधि दाता।
दुर्गम सुगम सुबोध सुजाता।।
दिव्य समग्र समुच्चय नारी।
विधिसम्मत अति सुंदर प्यारी।।

सकल सृष्टि लुप्त हो जाती।
यदि नारी जग में नहिं आती।।
नारी से ही जगत सुशोभित।
नारी पर सारा जग लोभित।।

अपराजिता अनंत गगनमय।
अतिशय शीतल मधु चन्दनमय।।
अद्वितीय आनंद सिंधुमय।
नारी!सचमुच भाव इंदुमय।।

शशि सा मुखड़ा सूर्य लोक हो।
अति शुभ वदना प्रेम श्लोक हो।।
देखत तुझ को सारी जगती।
तुझ पर मोहित सारी धरती।।

जो तेरी पूजा करता है।
देव लोक में वह रहता है।।
जग में हो सम्मान तुम्हारा।
दिखे सकल जग अतिशय प्यारा।।

37- सुंदर बनने का सपना हो
(चौपाई)

सुंदर बनने का सपना हो।
अति सुखमय जीवन अपना हो।।
यही कल्पना मन में आये।
सारा जीवन सफल बनायें।।

सुंदरता की खोज चले नित।
सत्य भावना हो सत्यापित।।
मन को निर्मल करते रहना।
वायु सुगन्धित बन कर बहना।।

शिव भावों का आलय बन जा।
सर्वोत्तम देवालय बन जा।।
मत कर कभी किसी की निंदा।
बन जाओ प्रिय प्रेम-परिंदा।।

पाती लिख कर प्रेम पढ़ाओ।
प्रीति मधुर रस नित बरसाओ।।
सबसे कहना बात एक ही।
सुंदर मन से करो बतकही।।

38- आओ प्यारे मीत बनो अब
(चौपाई)

आओ प्यारे मीत बनो अब।
मिलजुल कर के गीत लिखो अब।।
रहें गीत में दिल की बातें।
घनीभूत हो रिश्ते-नाते।।

एकीकृत हो गीत लिखेंगे।
डाले मुँह में मुँह गमकेंगे।।
नहीं रहेगी कोई चिंता।
कटे प्रेम से सब दुश्चिंता।।

निराकार हो नित घूमेंगे।
हो साकार सदा चूमेंगे।।
उड़ जायेंगे गगन लोक में।
बढ़ा करेगा प्रेम कोख में।।

आजीवन मधु चुंबन होगा।
सहज सुखद आलिंगन होगा।।
प्रीति रसायन पिया करेंगे।
एकोहम बन जिया करेंगे।।

39- देवभूमि (चौपाई)

जहाँ थिरकता सच्चा मन है।
शीतल मंद सुगंध पवन है।
चलती रहती सत्य साधना।
देवभूमि की वहीं वंदना।।

सात्विक भाव जहाँ रहता है।
रग-रग में उमंग बहता है।।
मन वेदी ज्ञानामृत आहुति।
प्रेम मगन हो नाचे प्रिय श्रुति।।

शुद्ध विचारों का संगम हो।
त्याग मनोरथ का सरगम हो।।
जीव मात्र के लिये जिंदगी।
देवभूमि की वही वन्दगी।।

मानव हित का विद्यालय हो।
सहानुभूति का शरणालय हो।।
देववृत्ति को सतत जगाओ।
देवभूमि को घर ले आओ।।

एक जगह पर बैठ ध्यान कर।
खुश रहना सारी दुनिया पर।।
जगह तुम्हारी पावन होगी।
देवभूमि मनभावन होगी।।

40- शिव की महिमा (चौपाई)

शिव की महिमा अतिशय न्यारी।
पूजनीय शिव प्रतिमा प्यारी।।
शिव पूजक अति प्रिय मनभावन।
शिव प्रेमी अति सरल लुभावन।।

शिव की महिमा का गायन हो।
त्यागरती शिव अभिवादन हो।।
शिवाकार कल्याणी बन चल।
शिव संस्कृति में आजीवन पल।।

त्याग स्वयं को शिवशंकर बन।
दो दुनिया को अपना तन-मन।।
शिव शिव हर हर कहते रहना।
भोले शंकर को नित जपना।।

भोला-भाला रूप बनाओ।
डमरू ले कर नाच नचाओ।।
पहने मृगछाला नित थिरको।
मोहित कर ले सारे जग को।।

रहे गले में नाग बहादुर।
दुनिया देखे हो कर आतुर।।
कौतूहल हो दिव्य निराला।
शिव जी दें सबको मधु प्याला।।

करना है उपकार जगत का।
करना है सत्कार भगत का।।
शिव-नैतिकता नित्य जगाओ।
शिव सा यह संसार बनाओ।।

41- पावन चिंतन की प्रतिमा हो
(चौपाई)

पावन चिंतन की प्रतिमा हो।
मन महानता की गरिमा हो।।
मन को कभी न बुझने देना।
मन तरंग को बहने देना।।

तुम्हीं बनो इक सुंदर सा जग।
उड़ो विश्व को लेकर बन खग।।
सकल सिंधु हो एक विंदु में।
हो ब्रह्माण्ड एक इंदु में।।

सबको सहलाते ही जाना।
सबका दिल बहलाते जाना।।
सबके दिल में बैठ निरन्तर।
सबको ले जा अपने भीतर।।

भोग त्याग कर त्यागरती बन।
ज्ञानवान हो सरस्वती बन।।
शिव सा हो परिधान तुम्हारा।
कल्याणी संधान तुम्हारा।।

मनज -पोत में सबको भर लो।
सारे जग को कर में कर लो।।
एक इकाई की समता हो।
मन में प्रिय स्थिर शुचिता हो।।

42- सुख की इच्छा दुःख का कारण (चौपाई)

सुख की इच्छा दुःख का कारण।
मरा जा रहा मनुज अकारण।।
इच्छाओं में माया रहती।
माया ही जीवों को ठगती।।

माया को जो समझ गया है।
माया के विपरीत गया है।।
माया से जो मुक्त हो गया।
उसका जीवन सफल हो गया।।

माया में जो फँसा हुआ है।
दलदल में वह धँसा हुआ है।।
माया प्रबल समायी मन में।
फैली हुई सहज जन-जन में।।

इच्छओं को तब मारोगे।
बुधि-विवेक से काम करोगे।
धीरे-धीरे कम करना है।
सुख की इच्छा से हटना है।।

सुख की इच्छा मिट जायेगी।
दुःख की रेखा पिट जायेगी।।
हो प्रशांत आनंद करोगे।
सहज सच्चिदानंद बनोगे।।

43- संवेदनहीनता (दोहे)

कैसे मानव हो रहा, अति संवेदनहीन।
चौराहे पर है खड़ा, बना दीन अरु हीन।।

भौतिकता की ओढ़कर, चादर चला स्वतंत्र।
चाहत केवल एक है, चले उसी का तंत्र।।

धनलोलुपता गढ़ रही, धूर्त पतित इंसान।
धन के पीछे भागते, भूत प्रेत शैतान।।

भावुकता अब मर रही6, हृदय बना पाषाण।
काम क्रोध मद लोभ के, कर में दिखत कृपाण।।

नैतिकता को कुचल कर,कौन बना भगवान?
नैतिक मूल्यों में बसा, अति सुंदर इंसान।।

जहाँ सहज संवेदना, वहाँ अलौकिक देश।
लौकिकता के देश में, कुण्ठा का परिवेश।।

संवेदन को मारते, जीवन को धिक्कार।
भावुक कोमल हृदय ही, ईश्वर को स्वीकार।।

44- नारी! तुम सचमुच आराध्या
(चौपाई)

नारी! तुम सचमुच आराध्या।
सकल सृष्टि में प्रिय साध्या ।।
तुम ब्रह्मलोक की रानी हो।
सहज पूजिता कल्याणी हो।।

तुम कृष्ण कन्हैया की राधा।
तुम प्रेममूर्ति हरती वाघा।।
तुम रामचन्द्र की सीता हो।
विश्वविजयिनी शिव गीता हो।।

बोझ समझता जो तुझ को है।
नहीं जानता वह तुझ को है।।
बहुत कठिन है तुझे समझना।
तुम आदि सृष्टिमय प्रिय गहना।।

तुम हृदये स्थित करुणासागर।
अति व्यापक विशाल हिम नागर।।
तुम हिम गंगे शीतल चंदन हो।
तेरा ही नित अभिनंदन हो।।

सखी सखा अरु मित्र तुम्हीं हो।
सत्य गमकती इत्र तुम्हीं हो।।
परम दयालु कृपालु महातम।
तुम आलोक लोक हरती तम।।

दिव्य वर्णनातीत अलौकिक।
सृष्टि शोभना सरस अभौतिक।।
तुम्हीं ज्ञानमय प्रेममयी हो।
सभ्य सलोनी भक्तिमयी हो।।

45- जिसे देख मन खुश हो जाता
(चौपाई)

जिसे देख मन खुश हो जाता।
हर्षोल्लास दौड़ चल आता।।
वह महनीय महान उच्चतम।
मनुज योनि का प्रिय सर्वोत्तम।।

परोपकारी खुशियाँ लाता।
इस धरती पर स्वर्ग बनाता।।
सब की सेवा का व्रत लेकर।
चलता आजीवन बन सुंदर।।

कभी किसी से नहीं माँगता।
अति प्रिय मादक भाव बाँटता।।
मह मह मह मह क्रिया महकती।
गम गम गम गम वृत्ति गमकती।।

उसे देख मन हर्षित होता।
अतिशय हृदय प्रफुल्लित होता।।
मुख पर सदा शुभांक विराजत।
दिव्य अलौकिक मधुर विरासत।।

46- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

नारी अरि होती नहीं, नारी मित्र समान।
जो नारी को समझता, वह रखता शिव ज्ञान।।
वह रखता शिव ज्ञान, गमकता रहता प्रति पल।
भेदभाव से मुक्त, विचरता बनकर निर्मल।।
कहत मिश्रा कविराय, दिखे यह दुनिया प्यारी।
देवी का प्रतिमान, दिखे यदि जग में नारी।।

47- हरिहरपुरी की चौपाइयाँ

गदहे को मत घोड़ा कहना।
ज्यादा को मत थोड़ा कहना।।

मूर्खों को विद्वान न कहना।
विद्वानों को मूर्ख न कहना।।

नारी को अबला मत कहना।
कायर नर को सबल न कहना।।

झूठे को सच्चा मत कहना।
सच्चे को मत झूठ समझना।।

हँस हँस हँस कर प्रेम बाँटना।
खुले हृदय से स्नेह याचना।।

हतोत्साह को उत्साहित कर।
सच्चे मन से सब का हित कर।।

गलत काम का तिरस्कार कर।
हर मानव में सुंदर मन भर।।

सब के घर को सदा सजाओ।
मानववादी धर्म सिखाओ।।

48- सौरभ (दोहे)

सौरभ को जीवन समझ, यह जीवन का अंग।
सुरभित सुंदर भाव से, बनता मनुज अनंग।।

सौरभ खुशबूदार से, मानव सदा महान।
सदा गमकता रात-दिन, रीझत सकल जहान।।

सौरभ में मोहक महक, सौरभ अमित स्वरूप।
सौरभ ज्ञान सुगन्ध से, बनत विश्व का भूप।।

जिसमें मोहक गन्ध है, वह सौरभ गुणशील।
सौरभ में बहती सदा ,मधु सुगन्ध की झील।।T

स्वादयुक्त आनंदमय,अमृत रुचिकर दिव्य।
सौरभ अतिशय सौम्य प्रिय, सहज मदन अति स्तुत्य।।

सौरभ नैसर्गिक सहज, देवगन्ध का भान।
सदा गमकता अहर्निश, सौरभ महक महान।।

सौरभ दिव्य गमक बना, आकर्षण का विंदु।
सौरभ को ही जानिये, महाकाश का इंदु।।

49- मानवता (दोहे)

मानवता को नहिं पढ़ा, चाह रहा है भाव।
यह कदापि संभव नहीं, निष्प्रभाव यह चाव।।

नहीं प्राणि से प्रेम है, नहीं सत्व से प्रीति।
चाह रहा सम्मान वह ,चलकर चाल अनीति।।

मन में रखता है घृणा, चाहत में सम्मान।
ऐसे दुर्जन का सदा, चूर करो अभिमान।।

मानव से करता कलह, दानव से ही प्यार।
ऐसे दानव को सदा, मारे यह संसार।।

मानवता जिस में भरी, वह है देव समान।
मानवता को देख कर, खुश होते भगवान।।

मानव बनने के लिये, रहना कृत संकल्प।
गढ़ते रहना अहर्निश, भावुक शिव अभिकल्प।।

मानवता ही जगत का, मूल्यवान उपहार।
मानवता साकार जहँ, वहाँ ईश का द्वार।।

50- जीवन को आसान बनाओ
(चौपाई)

जीवन को आसान बनाओ।
सादा जीवन को अपनाओ।।
भौतिकता की माया छोड़ो।
क्रमशः लौकिक बन्धन तोड़ो।।

इच्छाओं को करो नियंत्रित।
संयम को नित करो निमंत्रित।।
अपनी सीमाओं में जीना ।
संतुष्टी की हाला पीना।।

धन को देख नहीं ललचाओ।
थोड़े में ही मौज उड़ाओ।।
धनिकों को आदर्श न मानो।
सदा गरीबों को पहचानो।।

श्रम कर अपनी वृत्ति चलाओ।
लूट-पाट मत कभी मचाओ।।
साधारण जीवन में सुख है।
भौतिकता में दुःख ही दुःख है।।

हो अदृश्य बन सुंदर कर्मी।
बन उत्तम मानव प्रिय धर्मी।।
सदा सरलता में सुख ही सुख।
नित्य प्रदर्शन में दुःख ही दुःख।।

कठिन नहीं आसान बनाओ।
प्रेत नहीं भगवान बनाओ।।
दुष्ट नहीं इंसान बनाओ।
मूल्यों का सम्मान बचाओ।।

51- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

समता के प्रिय मंत्र से, हो सब का उपचार।
सम भावों से ही बने, यह सारा संसार।।
यह सारा संसार,बने इक सुंदर सा घर।
रहें सभी खुशहाल,उगे धरती पर दिनकर।।
कहत मिश्रा कविराय,पढ़ें सब पुस्तक “ममता”।
भेद -भाव को भूल,चलें सब पकड़े समता।।

52- मिश्रा कविराय की कुण्डलिया

रमता योगी दे रहा, मानव को सन्देश।
भ्रमण करो चारों तरफ, धर निर्मल परिवेश।।
धर निर्मल परिवेश, बनो सबका कल्याणी।
नहीं राग नहिं द्वेष, बनो अति पावन प्राणी।।
कहत मिश्रा कविराय, चलो बन पुष्प महकता।
कर जगती से प्रेम, चलाकर बनकर रमता।।

53- डॉ०रामबली मिश्र की कुण्डलिया

चलना जिसको आ गया, वही बना इंसान।
जो चलना नहिं चाहता, वही दनुज हैवान।।
वही दनुज हैवान, किसी को नहीं सेटता।
टेरत अपना राग, स्वयं में रहत ऐंठता।।
कहत मिश्रा कविराय, सीख लो सुंदर कहना।
मत बनना मतिमन्द, बुद्धि से सीखो चलना।।

54- दरिद्रता (दोहे)

जो दरिद्र वह अति दुःखी, दीन-हीन अति छीन।
तड़पत है वह इस कदर, जैसे जल बिन मीन।।

तन -मन -धन से हीन नर, को दरिद्र सम जान।
है दरिद्र की जिंदगी, सुनसान मरु खान।।

है दरिद्र की जिंदगी, बहुत बड़ा अभिशाप।
जन्म-जन्म के पाप का, यह दूषित संताप।।

अगर संपदा चाहिये, कर संतों का साथ।
सन्त मिलन अरु हरि कृपा, का हो सिर पर हाथ।।

जिस के मन में तुच्छता,वह दरिद्र का पेड़।
है समाज में इस तरह, जिमि वृक्षों में रेड़ ।।

वैचारिक दारिद्र्य का, मत पूछो कुछ हाल।
धन के चक्कर में सदा, रहता यह बेहाल।।

धन को जीवन समझ कर, जो रहता बेचैन।
वह दरिद्र मतिमन्द अति, चैन नहीं दिन-रैन।।

55- सद्भावों में गहरापन हो
(चौपाई)

सद्भावों में गहरापन हो।
दुर्भावों में बहरापन हो ।।
रहे प्रेम में नित आलापन।
दिल का मिट जाये कालापन।।

सुंदर गाँवों का जमघट हो।
मृतक भावना का मरघट हो।।
शुभ भावों का गेह बनाओ।
सब में आत्मिक नेह जगाओ।।

शोभनीय धरती का हर कण।
सुंदर बनने का सब में प्रण।।
सभी बनायें उत्तम उपवन।
कल्याणी हो सब का जीवन।।

सारस्वत साधक का मेला।
शिव-आराधक का हो रेला।।
मानवता की चलें टोलियाँ।
सब की मधुर मिठास बोलियाँ।।

जग में आये शिव परिवर्तन।
पावनता का हो संवर्धन।।
निज में हो सामूहिक चेतन ।
हो सारा जग शांतिनिकेतन।।

हर पत्थर कोमल बन जाये।
निष्ठुरता से मल बह जाये।।
क्रूर बने अति मोहक मानव।
मर जायें पृथ्वी के दानव।।

सुंदर भावों के गाँवों में।
प्रिय हरीतिमा की छाँवों में।।
रहना सीखो सत्य श्याम बन।
सद्भावों का दिव्य राम बन।।

56- मिश्रा कविराय की कुण्डलिया

साधो अपने आप को, देख सत्य आदर्श।
आदर्शों की साधना, से संभव उत्कर्षा।।
से संभव उत्कर्ष,मनुज बनता गुणकारी।
करता जनकल्याण, बना सब का हितकारी।।
कहत मिश्रा कविराय, सदा शिव को आराधो।
गह सुंदर का साथ, स्वयं को नियमित साधो।।

57- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

नाता सब के साथ हो, दुनिया नातेदार।
नातेदारी की प्रथा, का कर नित विस्तार।।
का कर नित विस्तार, सहज बन जीते रहना।
सब के प्रति मृदु भाव,हृदय में ही नित रखना।।
कहत मिश्रा कविराय,मनुज है वही सुहाता।
जो संवेदनशील, रखत है सब से नाता।।

58- डॉ० रामबली मिश्र की कुण्डलिया

दाना पानी से जुड़ा, मानव का संयोग।
दाना पानी से सदा, मानव करता योग।।
मानव करता योग, सदा वह चलता फिरता।
जहाँ बुलाता अन्न, वहाँ वह जाने लगता।।
कह मिश्रा कविराय, लगा है आना जाना।
खाते हैं सब अंश, बुलाता जिनको दाना।।

59- मिसिर बलिराम की कुण्डलिया

आओ मेरे पास में, चलो गंग के तीर।
रे सखि देखो बैठकर, सतत गंग का नीर।।
सतत गंग का नीर, देख कर उस में बहना।
चलो गंग की चाल, एक रस बन कर चलना।।
कहें मिसिर बलिराम, खोज कर शुचिता पाओ।
जीवन में आनंद, हेतु तुम जल्दी आओ।।

60- मिसिर बलिराम की कुण्डलिया

ज्यादा में विश्वास का, करते रहना त्याग।
थोड़े से ही काम कर, थोड़े में ही जाग।।
थोड़े में ही जाग, तोष का विगुल बजाओ।
यह सुख का आधार, इसी में अलख जगाओ।।
कहें मिसिर बलिराम, भला है जीवन सादा।
रखना ऊँचा ख्याल, कभी मत चाहो ज्यादा।।

61- मिश्रा कविराय की कुण्डलिया

मानव बनना अति कठिन, दानवता आसान।
सुंदर मानव सहज प्रिय, पूजनीय इंसान।।
पूजनीय इंसान, जगत में नाम कमाता।
करता उत्तम कृत्य, राह अच्छी दिखलाता।।
कहें मिश्रा कविराय,चलत कुपंथ पर दानव।
दिव्य लोक की ओर, सदा चलता है मानव।।

62- मिश्रा कविराय की कुण्डलिया

सजनी ऐसी चाहिये, बने गले का हार।
केवलसाजन से करे ,आजीवन वह प्यार।।
आजीवन वह प्यार, करे साजन को चूमे।
साजन के ही पास, निरन्तर रमणी घूमे।।
कहें मिश्रा कविराय, सुहानी लागे रजनी।
मन में हो उत्साह, देखकर प्यारी सजनी।।

63- डॉ०रामबली मिश्र की कुण्डलिया

जीवन को समुदाय सा, समझें सारे लोग।
दुःखियों के सहयोग का, आजीवन हो योग।।
आजीवन हो योग, सभी हों सेवाभावी।
बरसे करुणा भाव, हृदय हो प्रेम प्रभावी।।
कहें मिश्रा कविराय, खिले पुष्पों का उपवन।
बने विश्व समुदाय, रहे सब का मधु जीवन।।

64- मिसिर बलिराम की कुण्डलिया

माथा झुकने दो नहीं, कर सब से संवाद।
स्वर्णिम भावों से करो, मानव को आवाद।।
मानव को आवाद, रहें सब मिलजुल जग में।
मने सभी का खैर, बजे घुँघरू हर पग में।।
कहें मिसिर बलिराम, रचे जो सुंदर गाथा।
बढ़ा करे सम्मान, सदा हो उन्नत माथा।।

65- मिश्रा कविराय की कुण्डलिया

राजा हो या रंक हो, सब का इक गन्तव्य।
सब को मरना एक दिन, यही सत्य मन्तव्य।।
यही सत्य मन्तव्य, जगत में किस्मत भारी।
अपना -अपना भाग,नियति है सब की न्यारी।।
कहें मिश्रा कविराय, बजाते सब हैं बाजा।
सब मानव के रूप, हॄदय से सब हैं राजा।

66- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

राखी राखी है नहीं, समझो इसे प्रसाद।
संतों के कर से मिली, हर लेती अवसाद।।
हर लेती अवसाद, होय तन मन उर चंगा।
बहाती अमृत धार,हृदय में बनकर गंगा।।
कहें मिश्रा कविराय, जगत है इस का साखी।
परम दिव्य अनमोल,सिद्ध पुरुषों की राखी।।

67- डॉ०रामबली मिश्र की कुण्डलिया

ताला सच्चा को समझ, मानव का ईमान।
धरती पर ईमान से, ताला कूड़ादान।।
ताला कूड़ादान,खुले घर में हो मानव।
हो चिंता से मुक्त, रहें सुख से सब मानव।।
कहें मिश्रा कविराय, अगर मन में है काला।
नहीं बनेगा काम, भले सशक्त हो ताला।।

68- राजा (दोहे)

असली राजा है वही, करे जो दिल पर राज।
सारी जनता नित करे, उस राजा पर नाज।।

सुंदर राजा के लिये, जनता ही गन्तव्य।
जनता का ही जानना, चाहत वह मन्तव्य।।

जीता जनता के लिये, जनता ही भगवान।
जनता पर राजा रखे, प्रति पल अपना ध्यान।।

जनता में ही जागता, राजा सदा महान।
दे देता है जिंदगी, जनता को ही दान।।

जनता को जिसने दिया, अपना सब कुछ दान।
कहलाया वह विश्व में, नारायण भगवान।।

जनता-राजा मध्य में , सजे राम दरबार।
जन हित में राजा करे, आजीवन उपकार।।

पद लोलुप राजा नहीं, पाता है सम्मान।
पद -मदांध राजा -हृदय,में बसता शैतान।।

69- मिसिर बलिराम की कुण्डलिया

थोड़ा लगता है अधिक, जब आता संतोष।
बन सन्तोषी चल सदा, बिना किये अफसोस।।
बिना किये अफसोस, चला कर बना मुसाफिर।
तुलना को दो मात, चाह मत बनना जाबिर।।
कहें मिसिर बलिराम, न चाहो सहना कोड़ा।
आसानी की चाल, बहुत सुंदर है थोड़ा।।

70- विश्व कविता दिवस (चौपाई)

कविता लिखता रहता कवि हूँ।
बहु रूपों में कवि की छवि हूँ।।
मनमौजी अति मस्त फकीरा।
कविताओं का बना ज़खीरा।।

कविता मेरी प्रिय मित्राणी।
कविता में दिखता हर प्राणी।।
कविता मेरी प्रिया प्रेयसी।
बनी कबीरा रसिक जायसी।।

कविता मेरी जीवनसंगिनि।
अति कोमल भावुक अर्धांगिनि।।
कविता में जीवन रहता है।
कविताई में मन लगता है।।

चुन -चुन कर कविता लिखता हूँ।
कविता संग सदा बहता हूँ।।
कविता है तो मैं जीवित हूँ।
बिन कविता मैं सच में मृत हूँ।।

सभी जगह मेरी कविता है।
गगन सिंधु कानन सरिता है।।
यह सारा संसार काव्यमय।
सकल चराचर लोक दिव्यमय।।

गगन देख मन हर्षित होता।
लिखने को आकर्षित होता।।
है अनंत यह ज्ञान प्रकाशा।
पृथ्वी को चूमत आकाशा।।

पृथ्वी भी हो मस्त घूमती।
सारे जग को लिये चूमती।।
बन कर यान घुमाती सब को।
सुंदर ज्ञान सिखाती सबको।।

जो सब को ले कर चलता है।
उस का जीवन खिल उठता है।।
सब का साथ जिसे भाता है।
पूजनीय वह बन जाता है।।

कवि कविता को नित्य खोजता।
कविता को ही सतत भोगता।।
कदम-कदम पर दिखती कविता।
सदा मचलती रहती कविता।।

पंछी के कलरव में कविता।
बाग तड़ाग चमन में कविता।।
सागर में लहराती कविता।
प्रीति बनी गहराती कविता।।

देख परिंदा कवि खुश होता।
झरनों के झर-झर में खोता।।
देख विचित्र चित्र मनभावन।
लेखन करता कवि बन सावन।।

कविता पावन मस्त छबीली।
सभ्य माधुरी सुष्ठ रसीली।।
कविता का हार्दिक अभिनंदन।
करते रहना नियमित वंदन।।

71- विद्वान (दोहे)

जानकार जो विषय का, वह विद्वान सुजान।
देता रहता जगत को, अपना उत्तम ज्ञान।।

अपने सुंदर ज्ञान से, देता जग को सींच।
अंधकार को जगत से, नित लेता है खींच।।

अंधकार को खींच कर, देता सत्य प्रकाश।
विद्वानों की मंडली, भरती सब में आस।।

आशा से ही विश्व में, भर जाता है जोश।
विद्वानों का कर्म यह, लायें सब में होश।।

मदहोशी को सर्वथा, दूर करत विद्वान।
विद्वानों के ज्ञान से, बनता भव्य जहान।।

सभ्य सुसंस्कृत विश्व का, होता तब निर्माण।
दे देता विद्वान जब, सकल ज्ञान का प्राण।।

पंडित ज्ञानी तत्वविद, अति शिक्षित विद्वान।
सकल लोक की सभ्यता, के असली ये खान।।

विद्वानों का जो करत, आजीवन सम्मान।
फलता रहता रात-दिन, बढ़ता जिमि दिनमान।।

72- जल संरक्षण दिवस (चौपाई)

जल से ही जीवन चलता है।
तन मन उर खिलता रहता है।।
जल बिन प्राणी मर जायेंगे।
जल से प्राणी तर जायेंगे।।

जल का एक बूँद भी प्यारा।
एक सूक्ष्म बूँद भी न्यारा।।
पानी का मतलब होता है।
नीरहीन तन सब खोता है।।

छिपी नीर में सृष्टि अस्मिता।
देता सब को नीर तृप्तता।।
समझो जल की सदा महत्ता।
जल ही जीवन का अधिवक्ता।।

बूँद-बूँद है वेशकीमती।
भूखे-प्यासे की यह मस्ती।।
जल का जो संरक्षण करता।
अमर रसायन भर-भर रखता।।

73- मनीषा (चौपाई)

सर्वशक्तिसम्पन्न मनीषा।
बुद्धिमती गंभीर विशेषा ।।
चिंतन परम दिव्य शुभकामी।
अक्लमंद अति सहज सुनामी।।

इच्छाशक्ति प्रबल मनमोहक।
ज्ञानवती सद्भाव सुमोचक।।
महा मनीषा अति मेधावी।
सुमुखि सुलोचन नीति प्रभावी।।

चिंतन-मनन प्रखर अति पावन।
शुचि विचार सुंदर जिमि सावन।।
विद्यावती सत्य निज धर्मी।
वैज्ञानिक तटस्थ शिव मर्मी।।

प्रिय अभिलाषा सब का हित हो।
उत्तम भाव सभी में नित हो।।
सदा मनीषा शक्ति महत्तम।
सभ्य मनीषा शिव पुरुषोत्तम।।

74- प्रलय चालीसा

दोहा-

प्रलय दुःखद दारुण सदा, करता सत्यानाश।
सकल सृष्टि को नष्ट कर, पहुँचाता आकाश।।

चौपाई-

प्रलय खड़ा हो ताक रहा है।
कण-कण में वह झाँक रहा है।।
लगा रहा है सतत निशाना।
नित्य विलोपन का दीवाना।।

महा भयंकर अति विकराला।
काला क्रूर काल विष प्याला।।
निर्मोही निष्ठुर जग व्यापी।
सदा मचाता आपा-धापी।।

नहीं किसी की इक सुनता है।
अपने मन से नित करता है।।
विधि-विधान से बना हुआ है।
रज-अणु में वह बसा हुआ है।।

करने को विलुप्त आतुर है।
रुद्र रूप अतिशय चातुर है।।
चेहरे पर मुस्कान नहीं है।
बहुत ज्ञान नादान नहीं है।।

सृष्टि विनाशक घोर निरंकुश।
सब पर रखता अपना अंकुश।।
नहीं किसी से याचन करता।
संहारों का वाचन करता।।

नष्ट-भ्रष्ट करता रहता है।
तरह-तरह से क्षति करता है।।
संकट का ही नाम प्रलय है।
प्रलयंकारी विद्यालय है।।

ध्वस्तीकरण नीति इस की है।
दुःखद-योग-प्रीति इस की है।।
सतत चला करता है प्रति पल।
अतिशय क्रियाशील बहु-चंचल।।

हाहाकार मचाता चलता।
क्रमशः आगे बढ़ता रहता।।
इस का केवल काम सफाया।
दीन-हीन करता हर काया।।

सर्वनाश ही इस की मंशा।
सत्य ब्रह्म पर निश्चित कंसा।।
कारण मूल प्रकृति में जाना।
सदा चाहता प्रलय गुमाना।।

सर्वज्ञानसम्पन्न प्रलय है ।
सदा चाहता सतत विलय है।।
माया-मोहरहित अविनाशी ।
प्रलय भयानक लोप-निवासी।।

दोहा-

संहारक बन कर प्रलय, करता अपना कर्म।
सर्व विनाशक कृत्य को, समझ प्रलय का धर्म।।

75- मिसिर कविराय की कुण्डलिया

मैला मन करता सदा,है स्वारथ का बीज।
इस को मानव त्याग कर,बनता उत्तम चीज।।
बनता उत्तम चीज, सदा परमारथ करता।
सब के लिये निमित्त, हुआ पार्थ सा चलता।।
कहें मिसिर कविराय, जगत में रह बन छैला।
आओ सबके काम, कभी मत बनना मैला।।

76- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

हिंदी में ही काम कर, रच अपनी पहचान।
हिंदी देती प्रेम से,यश-वैभव-सम्मान।।
यश-वैभव सम्मान,सभी अनमोल खजाना।
हिंदी में विश्वास, दिया करता है खाना।।
कहें मिसिर कविराय, समझ हिंदी को विन्दी।
हिंदी को ही पूज,पढ़ो आजीवन हिंदी।।

77- मिश्रा कविराय की कुण्डलिया

सादर आमंत्रण तुझे, दिल से कर स्वीकार।
आओ हम सब मिल रचें, सुंदर सा संसार।।
सुंदर सा संसार, बहाये पावन गंगा।
मन का हो विस्तार, रहे ना भूखा-नंगा।।
कहें मिश्रा कविराय, किया कर सब का आदर।
सदा प्रेम की बात, सुनो अंतस से सादर।।

78- मिसिर बलिराम की कुण्डलिया

दाता के ही नाम का, होता है गुणगान।
धनपिशाच को थूकता, हर कोई इंसान।।
हर कोई इंसान, चाहता सुंदर मानव।
नहीं जगत में मान, कभी पता5है दानव।।
कहें मिसिर बलिराम, वही है नाम कमाता।
जिस का करुणा भाव, बहा करता बन दाता।।

79- डॉ०रामबली मिश्र की कुण्डलिया

तेरे भीतर खोजता, रहता हूँ देवत्व।
सब से ऊपर है वही, जिस में हो मनुजत्व।।
जिस में हो मनुजत्व, वही मानव कहलाता।
रखता सब का ख्याल, हृदय में सब को लाता।।
कहें मिश्रा कविराय, लगाओ मन के फेरे।
पहुँचे शुद्ध विचार,बसे निश्चित उर तेरे।।

80- मिश्रा कविराय की कुण्डलिया

राहत दुःखियों को सदा, देते रहना मीत।
बन जाना संसार में, अति मनमोहक गीत।।
अति मनमोहक गीत, सुनाना सारे जग को।
अतिशय शीतल नीर, बने धोना हर पग को।।
कहें मिश्रा कसिराय, डाल लो मधुमय आदत।
दीनों का संसार,माँगता तुझ से राहत।।

81- उपाधि (दोहे)

अतिशय उत्तम कृत्य से, मिलता जग में नाम।
दुनिया करती है उसे, दिल से नित्य प्रणाम।।

उत्तम सृजन फलद सहज,अति फलदार उपाधि।
यह उपाधि हरती सतत, जीवन की हर व्याधि।।

पी-एच०डी० को पा मनुज, होता ज्ञानी शिष्ट।
त्रेता युग में जिमि हुए, गुरुवर ज्ञान-वशिष्ठ।।

डॉक्टरेट को पा मनुज, पाता जग में मान।
आते शिष्य निकट सदा, लेने को सद्ज्ञान।।

डॉक्टर मिश्रा कह रहे, कर अपना निर्माण।
मृतप्रायः हर मनुज में, फूँक ज्ञान का प्राण।।

सदा अलंकृत जिंदगी, होती अति खुशहाल।
अलंकार के हेतु नर, चले सृष्टि की चाल।।

ज्ञान अगाध अपार के, लिये करो शुभ कर्म।
इस में छिपी उपाधि अरु, मधु जीवन का मर्म।।

82- मिसिर कविराय की कुण्डलिया

लंका मानो गेह वह, जिस में भ्रष्टाचार।
एक दूसरे पर जहाँ, होता अत्याचार।।
होता अत्याचार, सभी दानव कुल द्रोही।
दूषित गृह परिवेश, सभी कामी अति कोही।।
कहें मिसिर कविराय, करो मत कोई शंका।
रहते नीच पिशाच, वही है असली लंका।।

83- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

सारा जीवन कर दिया, क्यों तूने बर्बाद?
थोड़ा भी तो सोचते, होने को आबाद।।
होने को आबाद, नहीं क्यों सोचा तुमने?
खुशहाली के जश्न, मनाये क्यों नहिं अपने??
कहें मिश्रा कविराय, नहीं जीवन क्या प्यारा?
जीवन को बेकार, बनाया तूने सारा।।

84- डॉ०रामबली मिश्र की कुण्डलिया

माना तुम साहित्य के, हिंदी रचनाकार।
शब्द-अर्थ मधु भाव को, करते एकाकार।।
करते एकाकार, जगत को देते दर्शन।
सत-शिव-सुंदर भाव, जगाते कर के लेखन।।
कहें मिश्रा कविराय, सृजन हो सब का बाना।
रचना का सम्मान, जगत ने सुंदर माना।।

85- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

घूमा चारोंओर बस, खोजन को भगवान।
नहीं दिखाई वे पड़े,परम दिव्य श्रीमान।।
परम दिव्य श्रीमान, बसे हैं निर्मल उर में।
रमते हैं दिन-रात, सतत वे अंतःपुर में।।
कहें मिश्रा कविराय, हृदय में प्रभु को चूमा।
हो कर अंतर्धान, बैठ कर दिल में घूमा।।

86- जीवन की होली (दोहे)

जीवन को होली समझ, सतत काटना पाप।
जीवन को रंगीन कर, निष्कलंक निष्पाप।।

पापों की होली जले, पापी का संहार।
पुण्यजड़ित मन का सदा, होय दिव्य विस्तार।।

धर्म पंथ ही ध्येय हो, बनें सभी प्रह्लाद।
पुण्य पाप को खत्म कर, दूर करे अवसाद।।

विजय सत्य की हो सदा, मारा जाय असत्य।
ईश्वर में आशक्ति का, बजे नगाड़ा सत्य।।

हर मानव में भक्ति की, हो प्रह्लादी चाह।
ईश्वर में अनुराग का, करें सभी परवाह।।

पाप मुक्ति के पंथ पर, चलना सीख सुजान।
शुभ होली के पर्व का, यह सच्चा है ज्ञान।।

रंगों से धोना सहज, अपना कलुषित भाव।
खुशी मनाओ प्रेम से, धो मानव के घाव।।

होली अति रंगीन हो, सुखी रहे बाजार।
सदा जलाओ होलिका, मिटे सहज व्यभिचार।।

87- डॉ०रामबली मिश्र की कुण्डलिया

पाना जो था लोक में, उसे गया अब पाय।
अब तो प्रभु दीदार की,चाहत बहुत सुहाय।।
चाहत बहुत सुहाय, ईश में मन लग जाये।
रहे ध्यान दिन-रैन, निरन्तर अलख जगायें।।
कहें मिश्रा कविराय, छोड़ कर सब है जाना।
होय निरन्तर ध्येय, ईश को केवल पाना।।

88- होली-कुण्डलिया

होली सुखद मने सहज, गायें सब मिल फाग।
सभी अलापें प्रेम से, दिव्य मिलन का राग।।
दिव्य मिलन का राग,सतत बरसे मन-उर में।
जागे निर्मल भाव, सभी मानव के भीतर।।
कहें मिसिर बलिराम, सरस हो सबकी बोली।
पिचकारी से मार, खेल रंगीली होली।।

89- मिसिर कविराय की कुण्डलिया

मिलता जो श्री राम से, पाता वह प्रिय राज।
भक्तों की सुनते सदा, श्री रघुवर आवाज।।
श्री रघुवर आवाज, बहुत है मंगलकारी।
भक्तों पर कर नाज, देत हैं जगती सारी।।
कहें मिसिर कविराय, शरण राघव जो रहता।
उसे अमित धन-मान, जगत में रहता मिलता।।

90- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

दाता जो अभिमान बिन, देता रहता दान।
आजीवन पाता वही,यश-वैभव-सम्मान।।
यश-वैभव-सम्मान, बहुत हैं दुर्लभ जग में।
करते सदा निवास, सदा दाता के रग में।।
कहें मिसिर कविराय, जगत का जो है भ्राता।
वही महा धनवान, विश्व का उत्तम दाता।।

91- होलिका (चौपाई)

लगातार होलिका जलाओ।
पापी मन को मार गिराओ।।
साधु-संत को नित्य बचाओ।
भक्ति भाव को सत्य बताओ।।

सत्य-विजय का पर्व मनाओ।
स्वच्छ हृदय की अलख जगाओ।।
देखो सब में नित ईश्वर को।
दे दो खुद को परमेंश्वर को।।

नाम होलिका परम अपावन।
आत्मघातिनी बहुत दुःखावन।।
अति अपकारी असहज दानव।
दुष्ट क्रूर अति पतित अमानव।।

बैठ चिता पर लिये भक्त को।
धर्मरती प्रह्लाद शक्त को।।
जल कर स्वयं राख हो गयी।
जल्द सुपुर्दे -खाक हो गयी।।

गन्दा चिन्तन नाम होलिका।
दूषित भाव कुबुद्धि नायिका।।
क्षद्म वेश को जल जाने दो।
पुण्य मनीषी को आने दो।।

नाम अमर प्रह्लाद निराला।
जिस के कर में अमृत प्याला।।
जो ईश्वर को दिल से भजता।
वह ईश्वर के घर में रहता।।

92- लगातार होलिका जलाओ
(चौपाई)

लगातार होलिका जलाओ।
कभी राह में रुक मत जाओ।।
दुष्ट-तिमिर को मिट जाने दो।
दानवता को पिट जाने दो।।

दानवता अतिशय दुःखदायी।
इसे जलाना अति सुखदायी।।
जो दानव को मार गिराये।
जग में वह प्रह्लाद कहाये।।

दुष्ट भाव की मारक होली।
जले सदा कुत्सित की डोली।।
होली पर्व मनाओ नियमित।
रहना सीखो सहज संयमित।।

देव शक्ति का जय जयकारा।
भक्त मनुज लाये उजियारा।।
दानवता का होय विखंडन।
भक्तों का हो महिमामंडन।।

सत-शिव-सुंदर का नारा हो।
सारा जग सुंदर प्यारा हो।
रहे होलिका नहीं जगत में।
अमिट प्रेम हो सदा भगत में।।

कण-कण में आह्लाद खिले अब।
जगती को प्रह्लाद मिलें अब।।
भक्ति भाव का होय जागरण।
कर मन में ईश्वर को धारण।।

यही धर्म है यही पर्व है।
यह जीवन का मूल सर्व है।।
पावन मन को नित बहने दो।
सुंदर भावों को जगने दो।।

जार होलिका मौज उड़ाओ।
ईश्वर का एहसान जताओ।।
पाप वृत्ति की जले होलिका।
भक्ति भावना बने नायिका।।

93- मत मारो…(चौपाई)

मत मारो तुम कोमल हिय को।
नहीं सताओ अपने पिय को।।
दया दृष्टि का पात किया कर ।
करुणा रस बरसात किया कर।।

पिय हिय को सहलाते रहना।
मन से दिल बहलाते रहना।।
मधुर सरस रस बन कर आओ।
अपने पिय को सदा लुभाओ।।

कोई नहीं बड़ा है पिय से।
नित्य लगाओ पिय को हिय से।।
पुचकारो अरु सहज दुलारो।
हिय में पिय को सदा उतारो।।

पिय ही तेरा परमेश्वर है।
पिय ही सच में सर्वेश्वर है।।
पिय को गले लगाये रहना।
पिय से सारी बातें कहना।।

पिय को सच्चा मीत समझना।
पिय पर रचना करते रहना।।
पिय में सोओ पिय में जागो।
पिय से अपनी चाहत माँगो।।

मत मारो तुम सुंदर हिय को।
अति सुकुमार सहज शिव पिय को।।
मस्ती में तुम लिपट पिया से।
उसे लगा ले सदा हिया से।।

94- मिसिर कविराय की कुण्डलिया

कहना मेरी मान कर, पढ़ ईश्वर का पाठ।
सदा चेतनाशील हो, मत बन जड़वत काठ।
मत बन जड़वत काठ, हृदय में प्रेम जगाओ।
जग को अपना मान, सभी को पंथ दिखाओ।।
कहें मिसिर कविराय, नियम प्रिय विधि का गुनना।
चल कर सब के पास, स्वजन बन कर सब कहना।।

95- डॉ० रामबली मिश्र की कुण्डलिया

बोली मधुरिम से सहज, सब के मन को जीत।
गायेगा सारा जगत, इक दिन तेरा गीत।।
इक दिन तेरा गीत, सुनेगी सारी जगती।
खुश होंगे सब लोग, हरित होगी यह धरती।।
कहें मिसिर बलिराम,बने सुंदर शिव टोली।
हो सब में संवाद, बोल कर उत्तम बोली।।

96- मिसिर बलिराम की कुण्डलिया

मानो मुझ को गुरु नहीं, मानो दिल से मीत।
नहीं मित्रता से मधुर, कोई भी है गीत।।
कोई भी है गीत, गीत में प्यारा मन हो।
मिले मीत का प्यार, गमकता मधु जीवन हो।।
कहें मिसिर बलिराम, मीत को मोहक जानो।
दिल में देना स्थान, मीत को अपना मानो।।

97- हरिहरपुरी की कुण्डलिया

सहना जिस को आ गया, वही बना बलवान।
सहनशीलता में छिपा, शिव व्यक्तित्व महान।।
शिव व्यक्तित्व महान, जगत में मंगलकारी।
करता कभी न क्रोध, परम निर्मल अविकारी।।
कहें मिसिर कविराय, निरन्तर बढ़ते रहना।
देना कभी न ध्यान, धीर हो सब कुछ सहना।।

98- मिसिर बलिराम की कुण्डलिया

देना सीखो प्रेम को, यह अक्षुण्ण भंडार।
तिल भर घटता यह नहीं, सतत एक रस धार।।
सतत एक रस धार, गिरे यह सब के उर में।
पी कर हों सब मस्त,नृत्य हो अंतःपुर में।।
कहें मिसिर बलिराम, कभी भी कुछ मत लेना।
हो कर नित करवद्ध,प्रीति रस जग को देना।।

99- डॉ०रामबली मिश्र की कुण्डलिया

धारण करो स्वनाम में, अति प्रिय मोहक धाम।
सब की सेवा को समझ, जीवन का आराम।।
जीवन का आराम, सफल जीवन का मतलब।
जीवन का हो दान,सुखी हों जग मानव सब।।
कहें मिसिर बलिराम,बनो मंगल का कारण।
शीतल मन में नित्य, सत्य को करना धारण।।

100- मिसिर कविराय की कुण्डलिया

साधन यह तन धाम है,यही मोक्ष का द्वार।
करो इसे संपुष्ट अति, पहुँच सिंधु उस पार।।
पहुँच सिंधु उस पार, देख अलौकिक दृश्य नित।
होय सदा मन मस्त, फकीरी होय सुवासित।।
कहें मिसिर कविराय, बनो सुंदर मनभावन।
रहे स्वस्थ यह जिस्म, बने मनमोहक साधन।।

हरिहरपुरी की कुण्डलिया

गायन कर प्रभु राम का, वही मोक्ष के धाम।
पहुँचायेंगे एक दिन, तुम को अपने ग्राम।।
तुम को अपने ग्राम, घुमायेंगे चौतरफा।
सदा रहेंगे साथ,बात होगी साफ-सफा।।
कहें मिसिर बलिराम, सतत पढ़ना रामायण।
पकड़ राम की बाँह, करो उन का ही गायन।।

मिसिर बलिराम की कुण्डलिया

बाधक बनना मत कभी, मत करना गतिरोध।
अपने दूषित कृत्य पर, करते रह प्रतिशोध।।
करते रह प्रतिशोध, सदा कर हृदय सफाई।
अपने मन को मार, करो नित शुद्ध दवाई।।
कहें मिसिर बलिराम, बनो अत्युत्तम साधक।
कर अपना उपचार, कभी मत बनना बाधक।।

डॉ०रामबली मिश्र की कुण्डलिया

ताकत प्रभु जी का दिया,कर इससे सत्कर्म।
दुःख पहुँचाने के लिये, मत कर कभी अधर्म।।
मत कर कभी अधर्म, धर्म का पालन करना।
ताकत जीवित तथ्य, इसे अति सहज समझना।।
कहें मिसिर बलिराम, करो सत्कृति का स्वागत।
पुरुषारथ के हेतु, झोंक अपनी सब ताकत।।

रचनाकार:

डॉ०रामबली मिश्र हरिहरपुरी
ग्राम व पोस्ट-हरिहरपुर(हाथी बाजार), वाराणसी-221405
उत्तर प्रदेश , भारतवर्ष ।

Language: Hindi
1 Like · 263 Views
📢 Stay Updated with Sahityapedia!
Join our official announcements group on WhatsApp to receive all the major updates from Sahityapedia directly on your phone.
You may also like:
**!! अलविदा दीपावली !!*
**!! अलविदा दीपावली !!*"
AVINASH (Avi...) MEHRA
गांव में विवाह होता था तो इस सीजन में होता था क्योंकि गेहूं,
गांव में विवाह होता था तो इस सीजन में होता था क्योंकि गेहूं,
Rituraj shivem verma
औरों के संग
औरों के संग
Punam Pande
म
*प्रणय*
पहले जो मेरा यार था वो अब नहीं रहा।
पहले जो मेरा यार था वो अब नहीं रहा।
सत्य कुमार प्रेमी
Good morning 🌅🌄
Good morning 🌅🌄
Sanjay ' शून्य'
दीवारों की चुप्पी में
दीवारों की चुप्पी में
Sangeeta Beniwal
" दस्तूर "
Dr. Kishan tandon kranti
आज फिर हाथों में गुलाल रह गया
आज फिर हाथों में गुलाल रह गया
Rekha khichi
जो लोग टूट जाते हैं किसी से दिल लगाने से,
जो लोग टूट जाते हैं किसी से दिल लगाने से,
डॉ. शशांक शर्मा "रईस"
तस्वीर बनाना
तस्वीर बनाना
Dr fauzia Naseem shad
जब दिल से दिल ही मिला नहीं,
जब दिल से दिल ही मिला नहीं,
manjula chauhan
गीत लिखूं...संगीत लिखूँ।
गीत लिखूं...संगीत लिखूँ।
Priya princess panwar
मन प्रीतम की प्रीत का,
मन प्रीतम की प्रीत का,
sushil sarna
ਕਿਸਾਨੀ ਸੰਘਰਸ਼
ਕਿਸਾਨੀ ਸੰਘਰਸ਼
Surinder blackpen
वो बातें
वो बातें
Shyam Sundar Subramanian
सुनो पहाड़ की....!!! (भाग - ३)
सुनो पहाड़ की....!!! (भाग - ३)
Kanchan Khanna
3058.*पूर्णिका*
3058.*पूर्णिका*
Dr.Khedu Bharti
“सुकून”
“सुकून”
Neeraj kumar Soni
प्रेम की मर्यादा
प्रेम की मर्यादा
singh kunwar sarvendra vikram
हौसला न हर हिम्मत से काम ले
हौसला न हर हिम्मत से काम ले
Dr. Shakreen Sageer
CompTIA Network+ Certification Training
CompTIA Network+ Certification Training
rojarani
-Relationships require effort.
-Relationships require effort.
पूर्वार्थ
तेरे मेरे बीच में,
तेरे मेरे बीच में,
नेताम आर सी
मेरी कलम से…
मेरी कलम से…
Anand Kumar
" कृष्ण-कमल  की महिमा "
Dr. Asha Kumar Rastogi M.D.(Medicine),DTCD
"उम्रों के बूढे हुए जिस्मो को लांघकर ,अगर कभी हम मिले तो उस
Shubham Pandey (S P)
बातें कल भी होती थी, बातें आज भी होती हैं।
बातें कल भी होती थी, बातें आज भी होती हैं।
ओसमणी साहू 'ओश'
" लो आ गया फिर से बसंत "
Chunnu Lal Gupta
🌹#तुम_मुझे_ढूंढ_लेना🌹
🌹#तुम_मुझे_ढूंढ_लेना🌹
शालिनी राय 'डिम्पल'✍️
Loading...