सबकी सीमा खैर मना….
इधर-उधर मत ताका कर
मन के भीतर झाँका कर
काँटों भरी राह पर भी तू
फूल खुशी के टाँका कर
मोती भी चुग लाया कर
यूँ ही धूल न फाँका कर
कुछ तो काम की बातें कर
खाली गप्प न हाँका कर
सबकी अपनी कीमत है
कम न किसी को आँका कर
हुनर उजागर कर सबके, पर
दोष न अपने ढाँका कर
सबकी ‘सीमा’ खैर मना
बाल न किसी का बाँका कर
—© डॉ. सीमा अग्रवाल —
“संरचना” से