सबका अपना दाना – पानी…..!!
कब तक होगी यूँ नादानी, छोड़ो भी,
हरकत बच्चे की बचकानी, छोड़ो भी।
आंख के अंधे नाम नयनसुख हैं सारे,
करते अपनी ही मनमानी, छोड़ो भी।
नौ सौ चूहे खा के बिल्ली हज़ को जाये,
देखी इसकी कारिस्तानी, छोड़ो भी।
आया ऊंट पहाड़ के नीचे झेलो अब,
पोल खुली तो आनाकानी, छोड़ो भी।
रंग उड़े, फिर चह्रे सबके – फक्क हुए,
मन में अब तक है हैरानी, छोड़ो भी।
क्या मसला है…? क्या मुद्दा है…? जानोगे,
झूठ, फ़रेब, कपट, अभिमानी, छोड़ो भी।
इक़ थैले के चट्टे – बट्टे, दिखते हो,
रग – रग सबकी है पहचानी, छोड़ो भी।
मिलकर गंगा मेें, गंगाजल हो जाता है,
गंदे नाले का भी पानी, छोड़ो भी।
पर उपदेश कुशल बहुतेरे, ही देखे,
बात उन्हीं को है समझानी, छोड़ो भी।
ये ज़ह्र भला क्या कर पायेगा उसका,
जो हो माधव की दीवानी, छोड़ो भी।
सौ सौ झूठ दबा सकते हैं, क्या सच को..?
खुद ही होंगे पानी – पानी, छोड़ो भी।
दान क्षमा का मिलता हर अपराधी को,
ग़र यूँ कह दे गलती मानी, छोड़ो भी।
बेशक लाख करो कोशिश पर भुगतोगे,
हर पल होती अब निगरानी, छोड़ो भी।
इक़ राजा था इक़ थी रानी, बचपन में,
दोनों मर गये ख़त्म कहानी, छोड़ो भी।
देख “परिंदे” की ऊँचाई, जलने दो,
सबका अपना दाना – पानी, छोड़ो भी।
पंकज शर्मा “परिंदा”🕊