सफ़र अनजान राहों का मुझे कोई तो रहबर दे
बह्र-हज़ज मुसम्मन सालिम
ग़ज़ल
सफ़र अनजान राहों का मुझे कोई तो रहबर दे।
भटकता दर-ब-दर हूं कोई चौखट दे कोई दर दे।।
तू अपनी रहमतों का अब्र बरसा दे ख़ुदा जम कर।
मेरे रब रेत के सहरा को भी सैराब अब कर दे।
हमारी तिश्नगी छोड़ो बहुत प्यासा मुसाफ़िर है।
गज़ब की प्यास है उसको उसे पूरा समंदर दे।।
परिंदे के है काटे पंख तो जालिम ज़माने ने।
तमन्ना है उसे परवाज़ की तू पर अता कर दे।।
मेरे अंदर तकब्वुर, बेहयाई बदगुमानी है।
जिन्हें सब ऐब कहते है उन्हें मेरे हुनर कर दे।।
लिये हाथों में पत्थर ये अनीश अब घूमता फिरता।
ख़ुदा इसका मकां भी कांच का तामीर तो कर दे।।
*****अनीश शाह